Tuesday, November 20, 2018

लाठी है हानिकारक, प्रहारक, आधारक




लाठी। यह शब्द सुनने के बाद ही दिल और दिमाग में बांस का एक मजबूत टुकड़े की तसवीर नजर आने लगती है। वर्तमान में देश के एक मजबूत संगठन का प्रतीक भी है लाठी। पंजाब और हरियाणा के लिए तो यह विशेष तौर पर पहचान रखती है। यहाँ रहवासियों के लिए किसी शान से कम नहीं है। लेकिन देखा जाए तो लगभग हर शख्स की ज़िंदगी से लाठी जुड़ी हुई है। जीवन की किसी भी अवस्था में एक बार व्यक्ति इसका प्रयोग करने से नहीं चूकता। बचपन, यौवन और बुढापा। ज़िंदगी के यह तीन रूप हैं। और मैंने महसूस किया कि लगभग तीनों ही रूपों में लाठी किसी न किसी तरह लोगों के साथ रहती है। लेकिन एक और तथ्य और मेरी समझ में 18 नवंबर को उस वक़्त आया जब मोरारी बापू जी के प्रवचन सुने। लाइव नहीं, ऑनलाइन उनके एप पर। मथुरा के विश्राम घाट पर वह राम कथा का रसास्वादन करा रहे थे।


उस दौरान उन्होंने बताया कि लाठी ज़िंदगी के तीनों ही अवस्था में साथ रहती है, लेकिन बाल्यकाल में लाठी व्यक्ति के लिए एक असुरक्षित और असुविधाजनक वस्तु बनकर सामने आती है। क्योंकि बच्चे के हाथ जब लाठी रहती है तो वह निश्चित तौर पर हानिकारक रहेगी। बच्चा हाथ में लाठी लेगा तो वस्तुओं को तोड़ने का काम करता है। वह उससे खेल नहीं सकता। बल्कि वह अपने आप को या किसी अपने को चोट ही देेगा। इसके विपरीत युवावस्था में प्रहारक सिद्ध होती है। इसे हम यूं समझ सकते हैं कि व्यक्ति अपने युवा काल को जीता है तो उसमें ऊर्जा और उत्साह का प्रवाह कुछ ज्यादा ही रहता है। इस जोश में वह अपनी आत्मरक्षा और आत्मबल का प्रदशन करने के लिए लाठी का ही सहारा लेता है। जो उसके लिए प्रहारक साबित होती है। अब आते हैं जिंदगी के अंतिम पड़ाव यानी बुढ़ापा। बुढ़ापे में तन को सीधा चलाने और झुकी कमर का आधारक लाठी ही बनती है। देखा जाए तो लाठी हानिकारक, प्रहारक और आधारक है, और जिंदगी के हर अवस्था में साथ रहती है।

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