अभी कुछ रोज पहले बेहतर सहिष्णुता भेद का शिकार बने बाॅलीवुड के महान कलाकार आमिर खान अभिनीत फिल्म तारे जमीन पर दुबारा देखी। उसमें एक सीन बहुत खूबसूरत लगा। जब इशान अवस्थी के पिता आमिर खान से मिलने क्लास में पहुंचे और आमिर खान ने उन्हें एक ऐसे देश में विचित्र परंपरा के बारे में बताया, जिसमें पौधे को खत्म करने के लिए उसे सिर्फ कोसा जाता है। सीन के अंदर की गहराई पर अब बात करते हैं। आमिर खान अप्रत्यक्ष रूप से समस्या की असल वजह को खत्म करके समाधान ढूंढने की बात करते हैं। बस, यहीं से हमारा ये लेख शुरू होता है।
आज देश में समस्याओं को अमरबेल की तरह बढ़ाना राजनीतिक दलों को तो बखूबी आता है। राजनीति के लोग और उनके समर्थक किसी भी छोटे से मुद्दे को बड़ा बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे अवसर भी तलाशते रहते हैं। फिर चाहे दादरी में तथाकथित अखलाक का बीफ खाना हो, या मालदा का केस। अथवा अभी हाल में सुर्खियां बन रहा हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के आत्मदाह का मामला हो। इस केस पर मंगलवार को तो एक और नई बात सामने आई। वह ये कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जहां केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय का इस्तीफा मांगा, वहीं हैदराबाद विश्वविद्यालय से ही डी. लिट की उपाधि पाने वाले प्रख्यात लेखक अशोक वाजपेयी ने अपनी उपाधि लौटाने की बात कहकर केस से कहीं ज्यादा सुर्खियां बटोर लीं। मामले पर गुस्सा जायज है। राजनीतिक प्रधान देश में राजनीति भी होना लाजिमी है, लेकिन लोकतांत्रिक विरोध का अधिकार मिलने के बावजूद अपनी उपाधि और पुरस्कार लौटाने का कदम कुछ ज्यादा ही हास्यास्पद और निराशावादी नजर आता है। मैं मानता हूं कि यदि आप विरोध दर्ज कराना चाहते हैं, तो उसके और भी कई तरीके हैं। उन तरीकों को अपनाकर अपनी बात रखें। लेकिन एक बात और भी है कि यदि आप बुद्धिजीवी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं तो अपने आप को नियंत्रित रखें। विरोध के लिए अपनी लेखनी, अपने शब्दों को आवाज बनाएं। ये हालात और समस्याएं क्यों उत्पन्न हुईं, उन पर मंथन करें। पुरस्कार या उपाधि को वापिस करने से विरोध दर्ज कराना समझ से परे है। इस निर्णय से तो अन्य लेखक और उपाधिधारियों को विरोध करने का एक नया तरीका मिलेगा। एक नई परंपरा फिर गढ़ी जाएगी, इस पर लोग चल उठेंगे। माना कि बिगड़ी सत्ता और सिस्टम के चलते समस्या का समाधान संभव नहीं है, लेकिन ऐसे हालात भी नहीं हैं, जिनका कोई हल नहीं है। इसके लिए मंथन जरूरी है। एकजुटता जरूरी है। सुझाव और सलाह रखना जरूरी है। एक कदम तो ये कि युवाओं को निराशा की तरफ खिंचे चले जाने की वजहों को जड़ से खत्म करना जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि उन्हें बेरोजगारी, अशिक्षा के दलदल से बाहर लाया जाए। दूसरा बुद्धिजीवियों का जो ज्ञान है, वह युवा पीढ़ी को संसाधनों के साथ शेयर करें। ताकि उन्हें अनुभवहीनता और अज्ञानता का आभास न हो। और वह अपने आप को कमजोर महसूस न करें।
Tuesday, January 19, 2016
उपाधि वापिसी से समाधान खोजें
Thursday, January 14, 2016
अधिकार दीजिए, छीनिए नहीं
अधिकार दीजिए, छीनिए नहीं
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन क्या इसकी कोई लकीर खींचनी चाहिए। रचनात्मक, कलात्मक आलोचना और अपमान के बीच कोई सीमा खड़ी की जानी चाहिए। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने को लेकर भारत में समय-समय पर विवाद होता रहा है। कई पुस्तकें प्रतिबंधित हुई हैं। उपन्यासों को जलाया गया तो समाचार पत्रों तक की होली जलाई गई। शार्ली एब्दो पर हमले की बरसी के चंद रोज बाद ही कीकू शारदा की पुलिस हिरासत के बाद ये सवाल और भी मौजू हो चला है। और ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन केवल भारत में ही अपना विस्तार कर रहा बल्कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे विकसित देषों में भी अपने पांव पसार रही है। मुसलमानों के संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत तक ने शार्ली अब्दो सरीखे कांड की निंदा की। मजलिसे-मुशावरत के एक बयान में कहा गया था कि सभी सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यह स्वतंत्रता रचनात्मक आलोचना तक सीमित होनी चाहिए और विभिन्न धार्मिक पुस्तकों और पैगम्बरों आदि के अपमान के लिए उपयोग नहीं की जानी चाहिए। भारत में पेरिस जैसे मामले का सामना पहली बार 1920 के दशक में उस समय हुआ जब अविभाजित भारत के शहर लाहौर में एक आर्य समाजी हिंदू प्रकाशक ने मुसलमानों के पैगंबर हजरत मोहम्मद के निजी जीवन के बारे में एक विवादास्पद किताब प्रकाषित की। पैगम्बर मोहम्मद पर लिखी जाने वाली किताब के प्रकाशक राजपाल को पकड़ लिया गया और उनके खिलाफ मुकदमा चला। तब धर्म के अपमान का कोई रूप नहीं था। हालांकि कई साल बाद उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन एक मुस्लिम युवक ने इसी रंजिशन राजपाल की हत्या कर दी। हत्यारे को फांसी हुई। इस घटना के बाद नतीजा ये निकला भारतीय दंड संहिता में धर्म के अपमान की धारा 295-ए के तौर पर शामिल किया गया। भारत में 1988 में ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज पर मुसलमानों के विरोध और धमकियांे के कारण प्रतिबंध लगाया गया। आज से तीन साल पूर्व सलमान रश्दी मुसलमानों के धार्मिक संगठनों की धमकी के कारण देष के जयपुर में आयोजित लिटरेचर फेस्टीवल में षामिल नहीं हो सके थे। इसके अलावा तमाम पुस्तकें सिर्फ इसी वजह से अभी तक प्रतिबंध झेल रही हैं, क्योंकि उनमें धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली सामिग्री परोसी जानी है। बंगलादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन भी देष में मुस्लिमजनों में नफरती नजर से देखी जाती हैं। जबकि नसरीन खुद मुसलमान हैं। इसी तरह मकबूल फिदा हुसैन को हिंदूवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर करना पड़ा। मकबूल फिदा तो कट्टरपंथियों के हमले से इतने आशंकित रहे कि उन्हें अपनी आखिरी सांस विदेष में ही लेनी पड़ी। लेखकों के बाद बात करें कलाकारों की तो राजू श्रीवास्तव, कपिल शर्मा और भारती सिंह सरीखे काॅमेडियन पर कानून बनाने वाले उस वक्त ठहाका लगाने से नहीं चूकते जब वह खुद उनकी मिमिक्री करते हैं। युवा दिलों की धड़कन कहे जाने वाले कवि डाॅ0 कुमार विश्वास ने भी मंच से कई बार राजनेता और धार्मिक व्यक्तित्वों के खिलाफ जहर उगला है। तब तो कोई हल्ला नहीं मचा, लेकिन सिर्फ कीकू शारदा द्वारा एक डेरा प्रमुख की नकल करने की बात ने इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। पुलिस ने भी इतनी तत्परता दिखाई कि कीकू शारदा सरीखे कलाकार को उठाकर सींखचों के पीछे धकेल दिया। बाद में नाटकीय घटनाक्रम के तहत उसे छोड़ दिया। डेरा प्रमुख ने भी कीकू के माफी मांग लेने की बात पर विवाद समाप्त करने का बयान देकर पल्ला झाड़ लिया। दरअसल, ये एपिसोड पूरी तरह स्क्रिप्टेड दिखता है। अपने संगठन को सुर्खियों में लाने और अपने आप को शक्तिशाली दर्शाने के तथ्य को स्पष्ट करने की गोपनीय रणनीति नजर आती है। लिहाजा जरूरत छिपी शक्तियों पर शिकंजा कसने की जरूरत है न कि कलाकारों पर अपना रौब जमाने की। वजह साफ है, भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज का उदाहरण है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। और कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता।
Monday, January 11, 2016
मनु, मैच, मजा और मंगलवार
मनु, मैच, मजा और मंगलवार
मंगलवार गुजरा। मजेदार गुजरा। मैच का मजा आया। रोहित शर्मा खूब खेले। भारत का डंका बजा। विदेशी सरजमीं पर। आस्ट्रेलिया की धरती पर। जमकर रन बरसे। तालियां....। इससे बेहतर युवा दिवस का सेलीब्रेशन क्या हो सकता है। जब एक नौजवान खिलाड़ी ने अपनी क्षमताओं से आगे जाकर विदेशी खिलाडि़यों की हर तरकीब और समझ को नाकामी में बदल दिया। इसे भारत की काबिलियत कहना गलत नहीं होगा। स्वामी विवेकानंद यानी मनु के जन्मदिवस पर भारत के एक खिलाड़ी का इस तरह खेलना वाकई काबिले तारीफ है। उसने विवेकानंद की उस कहानी को चरितार्थ किया, जिस रोज विवेकानंद बनारस की गलियों में बंदरों के खौफ से एक कदम भी आगे बढ़ाने से डर रहे थे, लेकिन अगले ही पल पीछे से एक बुजुर्ग ने उनको नसीहत दी। डरो मत, उठो, पलटो और आगे बढ़ो। इस मूलमंत्र को लेकर जब स्वामी विवेकानंद आगे चले तो बंदरों ने उन्हें जाने का रास्ता दे दिया। शायद, यही फंडा रोहित शर्मा ने अपनाया। उठे, आगे बढ़े और जमकर खेले। 171 का स्कोर खड़ा कर दिया। विराट भी उनके साथ कदमताल करते रहे। सलाम, रोहित के जज्बे को। दरअसल, रोहित अकेले युवा नहीं है, जो अपनी प्रतिभा से विदेश की धरती पर चमके हैं। बल्कि युवाओं से सशक्त भारत अपनी क्षमताओं को विश्व को निरंतर हैरान कर रहा है। चाहे कोई क्षेत्र हो। अध्यात्म, खेल, मनोरंजन, राजनीति। हर क्षेत्र में वाहवाही। भारतीयों का प्रदर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना दशकों पहले था। 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर स्वामी विवेकानंद ने ओजस्वी भाषण देकर समूचे विश्व को चैंका दिया था, और आज रोहित शर्मा ने।
Amitabh thakur notice
हर अफसर अमिताभ का नोटिस टांगे !
सूबे के एक आईपीएस अधिकारी हैं। ये हैं अमिताभ ठाकुर। फिलवक्त नागरिक सुरक्षा आईजी के पद पर तैनात हैं। इन्होंने अभी हाल में बीते बुधवार को अपने चैंबर के गेट पर एक नोटिस चस्पा कर दिया। नोटिस का मजमून कुछ यूं था कि कोई भी महिला उनके केबिन या कमरे में अकेले न आए। इस नोटिस को अधिकारी ने फेसबुक पर भी पोस्ट कर दिया। मीडिया के लिए ये खबर ब्रेकिंग न्यूज बन गई है। इसके बाद लखनऊ में शाब्दिक और राजनीतिक बवाल मच गया। राज्य महिला आयोग को एक मुद्दा मिल गया। महिला संगठनों में बहस होने लगी। महिलाओं ने अपने आप को कटघरे में खड़ा मान लिया है। अमिताभ ठाकुर के सामाजिक कार्यकर्ता होने पर उंगली उठने लगी हैं। ये तमाम वाद-विवाद उठना लाजिमी है। क्योंकि अमिताभ सामान्य और आमजन तो है नहीं। उन्हें खास दर्जा हासिल है। उनके नोटिस को सूबे में राजनीतिक और खास तौर पर सत्तारूढ़ महिला समाज ने अपने ऊपर की गई टिप्पणी मान लिया है। जबकि ये गलत है। वजह साफ है, अमिताभ ठाकुर को यदि इस तरह का नोटिस लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा है तो उसके लिए जिम्मेदार खुद सत्ताशीन हैं, जिन्होंने अमिताभ सरीखे आईपीएस अधिकारी के खिलाफ माहौल बनाया। नोटिस की खिलाफत करने से पहले उन महिला संगठनों को क्या ये नहीं करना चाहिए था कि वह सूबे में महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने के लिए आवाज उठाएं ? क्या राज्य महिला आयोग को पहले अमिताभ से इस तरह की टिप्पणी के लिए मजबूर होने की वजह नहीं पूछनी चाहिए थी ? लेकिन ऐसा नहीं किया गया। खुद अमिताभ ठाकुर कहते हैं कि ये नोटिस प्रतीकात्मक है और पुरूषों को उन आरोपों से बचाने में मददगार साबित हो सकता है, जिससे पुरूष दुष्कर्म सरीखे संगीन आरोप के कारण कठघरे में खडे़ हो जाते हैं। बेशक, अमिताभ का मकसद महिलाओं को अपमानित करने का नहीं हो, लेकिन उनके इस नोटिस ने ये तो साबित कर दिया है कि समाजवाद का नारा देने वाली सरकार में न पुरूष सुरक्षित हैं और न महिलाएं। अधिकारी वर्ग भी अपने आप को महफूज नहीं मान सकता। वह भी एक पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी। क्योंकि सत्तारूढ़ लोग उसे कभी भी अपने राजनीतिक पाश में फंसाकर उल्टा टांग सकते हैं। मेरी व्यक्तिगत राय में ऐसा नोटिस सिर्फ अमिताभ ठाकुर को नहीं बल्कि सूबे के हर उस अधिकारी को अपने दरवाजे के बाहर टांगना चाहिए, जो भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ हैं। शायद, तभी सरकार अपने आप पर शर्म महसूस करें।