Sunday, January 7, 2018

एक नई सोचः सांसद वेतन से कंबल की गर्माहट सियासत नहीं





सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी. अपने संसदीय क्षेत्र की जयसिंहपुर विधानसभा के एक छोटे से गांव पलिया में पहुंचते हैं. गरीबों को कंबल बांटते हैं. एक-दो नहीं बल्कि पूरे 2000 कंबल. उनके लिए यह सराहनीय और अनिवार्य कदम है. लगे हाथ नसीहत देते हैं. पहले अपना उदाहरण. मैं वेतन नहीं लेता. इसलिए, अरबपति सांसद और अन्य जनप्रतिनिधि अपना वेतन छोड़ दें. इससे देश के गरीबों की मदद होगी.

मैं यहां दान करने नहीं आया हूं बल्कि इंसानियत और जनप्रतिनिधि होने का धर्म निभाने आया हूं. मेरी भावनाएं, मेरा प्यार गरीबों से है.  
सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी.     
वरूण गांधी का यह सोचना बेशक सियासी हो सकता है. सीजनल भी हो सकता है. सामाजिक कदम को सियासी रूप देना भी कोई नया नहीं है. अन्य दल इसे सुर्खियों में रहने का हथकंडा भी बता दें तो कोई बड़ी बात नहीं है. यह कहना भी गलत नहीं है कि अब जब देश में दोबारा लोकसभा चुनाव का समय नजदीक है तो वरूण गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र में अपनी सक्रियता को बढ़ा दिया है.

बहरहाल, सियासी लोगों की सोच सत्ता के करीब रहती हैः (यह मेरा व्यक्तिगत मानना है.)

..लेकिन सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी की सोच वाजिब है. 

- अब जेहन में सवाल कौंधता है, क्यों ?

क्योंकि, वजह साफ है, देश में गरीब और बेघर ज्यादा हैं-बहुत ज्यादा हैं.

बेघरों की संख्या में लगातार होती बढ़ोत्तरी का आंकड़ा डराने वाला है. देश की प्रमुख न्यूज वेबसाइट द वायर ने समाचार एजेंसी भाषा के हवाले से कहा है कि न सिर्फ गांव बल्कि देश में शहरी आबादी के बढ़ते बोझ के साथ ही बेघरों की संख्या में इजाफा हुआ है. यहां यह गौर फरमाने वाली बात है कि शहरी क्षेत्रों में बेघर अधिकांषतः गांव से ही आते हैं. अपने रोजगार की तलाष में. और यह तब है, जब हम देष के एक सैकड़ा से अधिक सिटी को स्मार्ट सिटी बनाने चले हैं. और, यहां नगरीय क्षे़त्र में ही, बेघरों को आश्रय मुहैया दिलाना केंद्र और राज्य सरकार के लिए चुनौती है. आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय की ओर से संसद के शीतकालीन सत्र में पेश आंकडे़ से भी चिंता झलकती है. क्योंकि मंत्रालय के अनुसार ही बेघरों की संख्या और मौजूदा आश्रय स्थलों की क्षमता में फिलहाल बहुत अंतर है. शहरी बेघरों को आश्रय मुहैया कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नवंबर 2016 में मंत्रालय द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के शहरी क्षेत्रों में 90 फीसद बेघरों के पास आश्रय का कोई ठिकाना नहीं है.

- अब बेघर और आश्रय स्थलों की कमी का अंतर के लिए कारण, कौन से हैं ?

दरअसल, राज्य सरकारों की इस मामले में उदासीनता, इस दिशा में चल रहे काम की धीमी गति का प्रमुख कारण है. वेबसाइट ने लिखा है कि आश्रय उपलब्ध कराने में धीमी प्रगति के प्रमुख कारणों में राज्यों के स्थानीय प्रशासन में इच्छाशक्ति का अभाव, आश्रयस्थल के निर्माण हेतु जगह की अनुपलब्धता, जमीन की ऊंची कीमत, बेघरों की सही संख्या का नामालूम होना, आश्रयों का गलत प्रबंधन, केंद्र सरकार द्वारा दी गई राशि का सही से उपयोग न होना तथा स्थानीय निकायों और अन्य संबद्ध एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल का अभाव शामिल हैं.

अब सवाल यह उठता है कि देश में आश्रय स्थल, कितने हैं ? 

इस संदर्भ में समाचार एजेंसी भाषा के अनुसार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार की पहल पर देश भर में 30 नवंबर, 2017 तक 1331 आश्रय स्थलों को मंजूरी दी गई है. इनमें से सिर्फ 789 आश्रय स्थल ही कार्यरत हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित समिति की रिपोर्ट में इसे ना काफी बताया. मंत्रालय ने बताया कि सरकार ने साल 2013 में राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत बेघरों के लिए आश्रय स्थल बनाने के लिए दीनदयाल अंत्योदय योजना 790 शहरों में शुरू की गई थी. तत्समय कांग्रेस की सरकार थी. पूर्ण बहुमत की.
कई राज्यों में भी. 2014 में सरकार बदली और बाद में इसे 4041 कस्बों तक विस्तारित कर दिया गया. योजना के तहत अब तक 25 राज्य और संघ शासित राज्यों में 1331 आश्रय स्थलों के निर्माण की राशि जारी की जा चुकी है. जबकि पिछले साल 30 नवंबर तक सिर्फ 789 आश्रय स्थल ही कार्यरत हो सके. मंत्रालय के आंकड़े गवाह हैं कि बिहार को मंजूर 114 आश्रय स्थलों में सिर्फ 31 बन सके जबकि उत्तर प्रदेश को मंजूर 92 आश्रय स्थलों में महज 5 आश्रय स्थल कार्यरत हो सके हैं.
वहीं दिल्ली, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और मिजोरम का इस मामले में प्रदर्शन श्रेष्ठ रहा. रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में केंद्र सरकार द्वारा सर्वाधिक 216 मंजूर आश्रय स्थलों में से 201 रैन बसेरे बेघरों को आश्रय मुहैया करा रहे हैं. जबकि मध्य प्रदेश के लिए मंजूर 133 में से 129 आश्रय स्थल बन गए हैं. तमिलनाडु को मंजूर 141 में से 102 और मिजोरम में 59 मंजूर आश्रय स्थलों में से 48 कार्यरत हैं.

- अब मंत्रालय ने आगे कदम बढ़ाया है तो क्या है ?

मंत्रालय ने भविष्य की इस चुनौती से निपटने के लिए राष्ट्रीय शहरी नीति बना कर इस पर अभी से अमल शुरू करने की पहल तेज कर दी है. यहां ध्यान देने वाली यह बात है कि जब कांग्रेस की सरकार थी तो राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत आश्रय स्थल बनाए जा रहे थे और अब राष्ट्रीय शहरी नीति के तहत बेघरों और आश्रय स्थलों के बीच के अंतर को कम करने के लिए केंद्रीय स्तर पर प्रयास तेज करने का भरोसा दिलाया है. इस दिशा में न सिर्फ राज्य सरकारों से लगातार संपर्क और संवाद को बढ़ाया गया है बल्कि कड़ाके की सर्दी को देखते हुए अंतरिम व्यवस्था के रूप में किराए पर भवन लेने और बेघरों की पहचान करने के लिए स्वतंत्र एजेंसियों से सर्वेक्षण कराने जैसे उपाय किए गए हैं.

- अब सांसद महोदय समस्या के समाधान जो सोचते हैं, वह तथ्य, क्या है ?

उनका (वरूण) यह कहना कि अरबपति-करोड़पति सांसद अपना वेतन छोड़ें तो गरीबों की मदद हो सकेगी.

वजह उपर्युक्त है. वक्त भी उपयुक्त है.

और जरूरत भी. वो वाजिब है.

ठंड का मौसम सितम बनकर टूट रहा है. हर आम और खास पर सितम बरस रहा है, लेकिन अमीरों पर कम और गरीब-बेघरों पर कुछ ज्यादा. लिहाजा कंबल की गर्माहट सियासत नहीं है. यह जरूरत है.
अतः सांसद (अरबपति और करोड़पति) आगे आएं...समाधान करें...

क्योंकि यदि अरबपति और करोड़पति सांसद को अपना वेतन मिले या न मिले, उन्हें परवाह नहीं. कई मान्य और अमान्यता भरे कारोबारों से उनकी जीवनषैली हाई प्रोफाइल बनी ही रहेगी. उसमें कुछ बदलने वाला है नहीं. सरकार से मिलने वाले संसदीय और विधायकी क्षेत्र के भत्ते पर भी उनका जीवनयापन हो सकता है. क्योंकि एसोसिएषन आॅफ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स (एडीआर) के अनुसार हरेक सांसद को प्रतिदिन के हिसाब से 2000 रूपये भत्ता मिलता है. अपने संसदीय क्षेत्र का 45000 रूपये भत्ता और हवाई तथा रेल सफर की भी सुविधा. वह भी फस्र्ट क्लास में. इसके अलावा प्रत्येक सांसद को 50 हजार रूपये प्रतिमाह सैलरी के रूप में सरकार भुगतान करती है. जो देष की प्रति व्यक्ति आय 33 हजार रूपये से 17 हजार रूपये अधिक है. एडीआर के मुताबिक देष भर में लगभग 54 सांसद अरबपति की श्रेणी में आते हैं.

- तो फिर सरकार, क्या करे ?

सांसद वरूण गांधी का फाॅर्मूला केंद्र और राज्य सरकारों को अपनाना चाहिए. सांसदों को भी रहमदिल होना पडे़गा, बेषक कुर्सी के लिए ही सही. उनका वेतन (यदि उनके द्वारा छोड़ा गया तो) गरीब बेघरों के लिए राहत ही नहीं बल्कि एक बूस्टर डोज की तरह काम करेगा. इसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि एक सांसद को वेतन मिलता है 50 हजार रूपया, जो 54 अरबपति सांसदों के एकजुट होने से प्रति महीने में 27 लाख रूपये हो जाता है. और 12 महीने के अंदर यह आंकड़ा तीन करोड़ 24 लाख रूपये हो जाएगा. चूंकि एक सांसद का कार्यकाल पांच साल का होता है तो यह रकम पांच गुनी होना तय है. जो 16 करोड़ 20 लाख रूपये पर आकर टिकती है. और इसमें यदि सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में बेघरों के आश्रय के लिए अपनी जमीन, किराए के भवन और अन्य संसाधनों को उपलब्ध अपने स्तर से करा दें तो निष्चित तौर पर मंत्रालय की चुनौतियां कम हो जाएंगी, और जनता की उम्मीदों पर खरे उतरने का वादा करके लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर संसद पहुंचने वाले सांसदों की यह नेकनीयत की सोच उन्हें दोबारा सत्ता के करीब भी ला सकती है.

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