Monday, January 29, 2018

देश हो रहा गरीब, नेता हो रहे रईस




...तो फिर वरूण गांधी के तेवर बदल उठे हैं. उनके सुर खुलकर सांसदों की बढ़ती संपत्ति और वेतनवृद्धि को लेकर सुनाई देने लगे हैं. सुल्तानपुर से भाजपा के सांसद वरूण गांधी ने एक बार फिर से लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा है कि लोकसभा के सांसदों की औसत संपत्ति लगभग 15 करोड़ और राज्यसभा के सदस्यों की 20 करोड़ रुपये है. इन पर सालाना सरकार के तीन-चार सौ करोड़ रुपये खर्च होते हैं. फिर बढ़ोत्तरी किस बात की? जरूरत तो यह है कि अपने सामाजिक कर्तव्यों के लिए मासिक वेतन भी छोड़ दें. कम से कम वृद्धि तो किसी हालत में नहीं होनी चाहिए.
गौरतलब है कि सदन में शायद ही कोई ऐसा सत्र जाता हो जब सांसदों की ओर से वेतन वृद्धि की बात न उठती हो. ऐसे सदस्य भी जोरदार समर्थन करते दिखते हैं, जिनकी घोषित संपत्ति भी करोड़ों में होती है. खुद प्रधानमंत्री का मानना है कि समाज के प्रति जिम्मेदार दिखते हुए सांसदों के वेतन वृद्धि के लिए अलग से एक स्वतंत्र संस्था होनी चाहिए. लेकिन उसके बावजूद भाजपा के सदस्य भी वेतन वृद्धि को लेकर दबाव बनाते रहे हैं. और सदन में वेतनवृद्धि का शोरगुल उठे भी क्यों न. क्योंकि सांसदों का वेतन एक बड़ा बजट है. यदि इसका कैलकुलेशन किया जाए तो आंकड़ा अरबों में पहुंच जाता है. एक सांसद एक महीने के अंदर लखपति तो बन ही जाता है. वह इस तरह लखपति बनता है कि उसे प्रतिमाह 50 हजार रूपया वेतन मिलता है. 60 हजार रूपया दैनिक भत्ता (प्रतिदिन 2000) और 45 हजार रूपया प्रतिमाह संवैधानिक भत्ता. इस लिहाज से एक महीने के अंदर सांसद की कमाई 1.55 लाख रूपये है. इसके अलावा अन्य भत्ते और सुविधाओं का जिक्र करना तो बाद की बात है. यह रूपया तो प्रत्यक्ष कमाई का है. यानी किसी हुनरमंद राजमिस्त्री की कमाई पर गौर फरमाएं तो वह भी यह रूपया एक साल में कमा सकेगा. राजमिस्त्री की यह कमाई तब होगी जब वह लगातार हर दिन काम करे. जबकि सांसदों से काम करने की कोई उम्मीद ही नहीं रखिए.
अब यदि पार्लियामेंट एक्ट के तहत 545 सदस्यों की गणना करें तो यह सभी 8.44 करोड़ रूपया हर महीने सांसदों के घर पर पहुंच जाता है. और एक साल के अंदर सरकार सांसदों को एक अरब एक करोड़ 37 लाख रूपया भुगतान कर देती है. यानी जिस देश में 26.11 करोड़ ग्रामीण मजदूर किसान हैं, और बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ रही है. श्रम और रोजगार मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक ही बेरोजगारी की दर 12.90 फीसद पर पहुंच चुकी है और देश में बेरोजगार पांच करोड़ का आंकड़ा पार करने के आसपास पहुंच चुके हैं. देश में 4.85 करोड़ युवा बेरोजगार हैं. देश में सिर्फ 2,96,50,000 लोगों के पास रोजगार है. 9,26,76,000 किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से  आधी से भी कम है. 11,90,98.000 मजदूर परिवारों की आय किसानो की औसत आय के आधे से कम है. उस देश के सदन में यदि सिर्फ 545 सांसद कहें कि मुझे अपने वेतन में वृद्धि चाहिए, और इसके लिए वह सदन के लगभग हर सत्र को न सिर्फ हंगामाखेज बना सकते हैं बल्कि सदन की कार्यवाही ठप भी करा सकते हैं तो फिर भला देश में लोकतंत्र की बात कहने वाला होगा कौन. क्योंकि जिस गरीब जनता, मजदूर, किसान और युवा बेरोजगार ने अपना वोट देकर उन्हें देश के उच्च सदन तक पहुंचाया और वहां पहुंचकर नेता सिर्फ अपनी कमाई बढ़ाने की फिक्र करने लगे तो फिर भला फिक्रमंद किसे कहा जाएगा.


बेशक वरूण गांधी जैसे सांसद इस देश में अपवाद बनकर उभरे हैं. वरूण ने एक नई रेखा खींची है. पिछले सप्ताह लोकसभा अध्यक्ष को पत्र को लिखकर उन्होंने कुछ आंकड़े रखे हैं जिसके अनुसार 16वीं लोकसभा में प्रतिव्यक्ति संपत्ति 14.60 करोड़ रुपये हैं. राज्यसभा में यह 96 फीसद सदस्य करोड़पति हैं और उनकी औसत संपत्ति 20.12 करोड़ रुपये हैं. वर्तमान स्थिति में प्रति सांसद मासिक रूप से सरकार 2.7 लाख रुपये खर्च करती है. वरूण ने सांसदों को उनके प्रदर्शन की भी याद दिलाई है. पत्र में उन्होंने कहा है कि 'क्या हम वाकई भारी बढ़ोत्तरी के लायक हैं? Ó सदन की बैठक 1952 में 123 से घटकर 2016 में 75 पर आ गई है. बीते पंद्रह वर्षो में बिना चर्चा के ही चालीस फीसद विधेयक पारित हुए हैं. भारत में असमानता का अंतर बढ़ता जा रहा है. ऐसे में सांसदों को समाज के प्रति संवेदनशील होना ही चाहिए. उन्होंने कहा कि ऐसे कुछ सांसद जरूर हैं जिनकी आजीविका वेतन पर निर्भर करती है. उन्हें छोड़ दिया जाए तो बाकी के 90 फीसद सदस्यों को कम से कम 16वीं लोकसभा तक के लिए स्वैच्छिक रूप से वेतन छोड़ देना चाहिए. उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष से अपील की कि इसके लिए आंदोलन शुरू करें.


हालांकि यह पत्र न सत्ता पक्ष को रास आएगा और ना ही विपक्ष को. क्योंकि सांसद वरूण गांधी ने एक ऐसा तीर छोड़ा है, जिससे बचने के लिए हर कोई सांसद अपना बचाव करने की कोशिश करेगा. इसके पीछे बड़ी वजह यह भी है कि राजनीति को सांसद अब समाज सेवा नहीं मानता. बल्कि एक बड़ा बिजनेस मानता है. जिस पर वह अपनी जिंदगी के कई बरस खर्च कर देता है. साम, दान, दंड, भेद की नीति को अपनाते हुए वह संसद के गलियारे तक पहुंचता है. और जब यह मौका उसके हाथ लगता है तो फिर भला वह कैसे अपने 'प्रॉफिट मनीÓ को छोडऩे की सोच सकता है. हालांकि ये सवाल हर चुनाव को जीने के बाद देश के सामने कहीं ज्यादा बड़ा होता नजर आता? जबकि चुनावी लोकतंत्र का अनूठा सच तो यही है कि हर पांच बरस में देश और गरीब होता है. नेता रईस होते हैं. उनका खजाना भरता चला जाता है.

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