Wednesday, January 31, 2018

...यह जिंदगी आपकी नहीं।

आज,
आप जो खाते हैं,
वो खाना नहीं,
आप जो पीते हैं,
वो पानी नहीं,
आप जो महसूस करते हैं,
वो वास्तविकता नहीं,
आप जो कहते हैं,
उसमें,
किसी की आस्तिकता नहीं,
आप, आप, आप...
बाप हैं, पर,
बेटे आपके नहीं,
भाई हैं, पर
हक आपके नहीं,
संबंधी हैं, पर
रिश्ते आपके नहीं,
और तो और
दोस्त हैं, पर
ये दुनिया आपकी नहीं।
इसलिए
आप, आप, आप...
जो अनुभव करते हैं,
बस, बस, बस...
वो ही एक सच है,
जिसमें बसा ये
सारा जग है,
क्योंकि
दिन शायद आपके हों,
पर रातें आपकी नहीं।
वजह है, सब तरफ
फरेब है, मक्कारी है,
बाबू या अधिकारी है,
घूस चलती है,
दबंगई दौड़ती है,
और, और, और
सच की तस्वीर को
सिर्फ रौंदती है,
क्योंकि
पैसा शायद आपको हो
लेकिन
नियत में ईमानी नहीं।
इसलिए
घुट-घुट जिंदगी जिओ
या फिर
एक रास्ता और है,
अब उठो, खड़े हो
खामोश न रहो,
होश-ओ-हवास न खोओ,
सिर्फ
हिम्मत रखो,
धैर्य रखो,
सच का सहारा लो
और
बेबाकी से आप कहो,
क्योंकि,
काया-माया आपकी हो,
लेकिन
यह जिंदगी आपकी नहीं।

Monday, January 29, 2018

देश हो रहा गरीब, नेता हो रहे रईस




...तो फिर वरूण गांधी के तेवर बदल उठे हैं. उनके सुर खुलकर सांसदों की बढ़ती संपत्ति और वेतनवृद्धि को लेकर सुनाई देने लगे हैं. सुल्तानपुर से भाजपा के सांसद वरूण गांधी ने एक बार फिर से लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा है कि लोकसभा के सांसदों की औसत संपत्ति लगभग 15 करोड़ और राज्यसभा के सदस्यों की 20 करोड़ रुपये है. इन पर सालाना सरकार के तीन-चार सौ करोड़ रुपये खर्च होते हैं. फिर बढ़ोत्तरी किस बात की? जरूरत तो यह है कि अपने सामाजिक कर्तव्यों के लिए मासिक वेतन भी छोड़ दें. कम से कम वृद्धि तो किसी हालत में नहीं होनी चाहिए.
गौरतलब है कि सदन में शायद ही कोई ऐसा सत्र जाता हो जब सांसदों की ओर से वेतन वृद्धि की बात न उठती हो. ऐसे सदस्य भी जोरदार समर्थन करते दिखते हैं, जिनकी घोषित संपत्ति भी करोड़ों में होती है. खुद प्रधानमंत्री का मानना है कि समाज के प्रति जिम्मेदार दिखते हुए सांसदों के वेतन वृद्धि के लिए अलग से एक स्वतंत्र संस्था होनी चाहिए. लेकिन उसके बावजूद भाजपा के सदस्य भी वेतन वृद्धि को लेकर दबाव बनाते रहे हैं. और सदन में वेतनवृद्धि का शोरगुल उठे भी क्यों न. क्योंकि सांसदों का वेतन एक बड़ा बजट है. यदि इसका कैलकुलेशन किया जाए तो आंकड़ा अरबों में पहुंच जाता है. एक सांसद एक महीने के अंदर लखपति तो बन ही जाता है. वह इस तरह लखपति बनता है कि उसे प्रतिमाह 50 हजार रूपया वेतन मिलता है. 60 हजार रूपया दैनिक भत्ता (प्रतिदिन 2000) और 45 हजार रूपया प्रतिमाह संवैधानिक भत्ता. इस लिहाज से एक महीने के अंदर सांसद की कमाई 1.55 लाख रूपये है. इसके अलावा अन्य भत्ते और सुविधाओं का जिक्र करना तो बाद की बात है. यह रूपया तो प्रत्यक्ष कमाई का है. यानी किसी हुनरमंद राजमिस्त्री की कमाई पर गौर फरमाएं तो वह भी यह रूपया एक साल में कमा सकेगा. राजमिस्त्री की यह कमाई तब होगी जब वह लगातार हर दिन काम करे. जबकि सांसदों से काम करने की कोई उम्मीद ही नहीं रखिए.
अब यदि पार्लियामेंट एक्ट के तहत 545 सदस्यों की गणना करें तो यह सभी 8.44 करोड़ रूपया हर महीने सांसदों के घर पर पहुंच जाता है. और एक साल के अंदर सरकार सांसदों को एक अरब एक करोड़ 37 लाख रूपया भुगतान कर देती है. यानी जिस देश में 26.11 करोड़ ग्रामीण मजदूर किसान हैं, और बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ रही है. श्रम और रोजगार मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक ही बेरोजगारी की दर 12.90 फीसद पर पहुंच चुकी है और देश में बेरोजगार पांच करोड़ का आंकड़ा पार करने के आसपास पहुंच चुके हैं. देश में 4.85 करोड़ युवा बेरोजगार हैं. देश में सिर्फ 2,96,50,000 लोगों के पास रोजगार है. 9,26,76,000 किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से  आधी से भी कम है. 11,90,98.000 मजदूर परिवारों की आय किसानो की औसत आय के आधे से कम है. उस देश के सदन में यदि सिर्फ 545 सांसद कहें कि मुझे अपने वेतन में वृद्धि चाहिए, और इसके लिए वह सदन के लगभग हर सत्र को न सिर्फ हंगामाखेज बना सकते हैं बल्कि सदन की कार्यवाही ठप भी करा सकते हैं तो फिर भला देश में लोकतंत्र की बात कहने वाला होगा कौन. क्योंकि जिस गरीब जनता, मजदूर, किसान और युवा बेरोजगार ने अपना वोट देकर उन्हें देश के उच्च सदन तक पहुंचाया और वहां पहुंचकर नेता सिर्फ अपनी कमाई बढ़ाने की फिक्र करने लगे तो फिर भला फिक्रमंद किसे कहा जाएगा.


बेशक वरूण गांधी जैसे सांसद इस देश में अपवाद बनकर उभरे हैं. वरूण ने एक नई रेखा खींची है. पिछले सप्ताह लोकसभा अध्यक्ष को पत्र को लिखकर उन्होंने कुछ आंकड़े रखे हैं जिसके अनुसार 16वीं लोकसभा में प्रतिव्यक्ति संपत्ति 14.60 करोड़ रुपये हैं. राज्यसभा में यह 96 फीसद सदस्य करोड़पति हैं और उनकी औसत संपत्ति 20.12 करोड़ रुपये हैं. वर्तमान स्थिति में प्रति सांसद मासिक रूप से सरकार 2.7 लाख रुपये खर्च करती है. वरूण ने सांसदों को उनके प्रदर्शन की भी याद दिलाई है. पत्र में उन्होंने कहा है कि 'क्या हम वाकई भारी बढ़ोत्तरी के लायक हैं? Ó सदन की बैठक 1952 में 123 से घटकर 2016 में 75 पर आ गई है. बीते पंद्रह वर्षो में बिना चर्चा के ही चालीस फीसद विधेयक पारित हुए हैं. भारत में असमानता का अंतर बढ़ता जा रहा है. ऐसे में सांसदों को समाज के प्रति संवेदनशील होना ही चाहिए. उन्होंने कहा कि ऐसे कुछ सांसद जरूर हैं जिनकी आजीविका वेतन पर निर्भर करती है. उन्हें छोड़ दिया जाए तो बाकी के 90 फीसद सदस्यों को कम से कम 16वीं लोकसभा तक के लिए स्वैच्छिक रूप से वेतन छोड़ देना चाहिए. उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष से अपील की कि इसके लिए आंदोलन शुरू करें.


हालांकि यह पत्र न सत्ता पक्ष को रास आएगा और ना ही विपक्ष को. क्योंकि सांसद वरूण गांधी ने एक ऐसा तीर छोड़ा है, जिससे बचने के लिए हर कोई सांसद अपना बचाव करने की कोशिश करेगा. इसके पीछे बड़ी वजह यह भी है कि राजनीति को सांसद अब समाज सेवा नहीं मानता. बल्कि एक बड़ा बिजनेस मानता है. जिस पर वह अपनी जिंदगी के कई बरस खर्च कर देता है. साम, दान, दंड, भेद की नीति को अपनाते हुए वह संसद के गलियारे तक पहुंचता है. और जब यह मौका उसके हाथ लगता है तो फिर भला वह कैसे अपने 'प्रॉफिट मनीÓ को छोडऩे की सोच सकता है. हालांकि ये सवाल हर चुनाव को जीने के बाद देश के सामने कहीं ज्यादा बड़ा होता नजर आता? जबकि चुनावी लोकतंत्र का अनूठा सच तो यही है कि हर पांच बरस में देश और गरीब होता है. नेता रईस होते हैं. उनका खजाना भरता चला जाता है.

Thursday, January 25, 2018

जब मोदी ने सुनाया भारत पर निबंध




दावोस से जारी तीन बड़ी रिपोर्ट 
  1. प्रदूषण पर और इकोसिस्टम के संरक्षण पर जारी एक रिपोर्ट में भारत को 180 मुल्कों में 177 वें नंबर पर बताया गया है. दो साल पहले भारत 156 वें नंबर पर था. यानी भारत का प्रदर्शन खराब हुआ है. यह सूची येल सेंटर फॉर एनवायरमेंट लॉ एंड पालिसी ने तैयार की है. प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को बड़ी चुनौती बताया था. भारत का ही प्रदर्शन नीचे लुढ़क गया है.
  2. दावोस में ही जारी समावेशी विकास की रिपोर्ट में भारत 62 वें स्थान पर है. दो पायदान नीचे गिरा है. पाकिस्तान भारत से 15 पायदान ऊपर 47 पर है. भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने समावेशी विकास भी जोर दिया मगर उनका अपना रिकॉर्ड कैसा है, यह इस सूची में दिखता है.
  3. एक रिपोर्ट ऑक्सफाम की है. आर्थिक असमानता की रिपोर्ट. इसे भारत की मीडिया ने प्रमुखता से नहीं छापा. इस रिपोर्ट से यह पता चलता है कि दुनिया भर के साढ़े तीन अरब लोगों के पास जितना पैसा है, उतना मात्र 44 अमीरों के पास है. इन 44 लोग की आर्थिक शक्ति 3.7 अरब लोगों के बराबर हैं आप कल्पना कर सकते हैं दुनिया में असमानता का क्या आलम है.


अब बात करते हैं दावोस में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों को विदेशी मीडिया ने किस तरह लिया है. यह चर्चा इस दौर में इसलिए भी मौजूं हो चली है, क्योंकि जहां मोदी दुनिया भर में संरक्षणवाद, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन पर चिंता जताते है, वही तीनों मुद्दे उनके लिए खुलकर चुनौती बने हुए हैं. या यूं भी कह सकते हैं कि देश के लोकतंत्र को वाकई खतरा है....

भारत में आसियान देशों को आमंत्रित करने से दो दिन पहले स्वीट्जरलैंड के दावोस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओजस्वी भाषण दिया. यह भाषण ओजस्वी गोदी मीडिया के लिए हुआ है. भारतीय मीडिया के इतर यदि वैश्विक मीडिया पर नजरें गढ़ाएं तो कुछ अलग ही कहानी देखने को मिलती है. भारत के लिए जादूगर साबित होने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी मीडिया के लिए दावोस में सिर्फ एक भारतीय प्रतिनिधि के रूप में उभरे हैं. वजह साफ है, दावोस में भारत के प्रधानमंत्री मोदी के उदघाटन भाषण को भारतीय मीडिया ने प्रमुखता से छापा है. भारत के लिए दावोस में बोलना एक बड़े इवेंट के रूप में मीडिया ने दिखाया है. यह बात अलग है कि किसी ने उनके भाषण के अंतर्विरोध को छूने का साहस नहीं किया है. जबकि दुनिया के अन्य मुल्कों की मीडिया ने भारत के नेता को ज्यादा तरजीह नहीं दी है. विदेशी मीडिया ने भारत के प्रधानमंत्री के विचारों की चर्चा कम की है. ऐसा नहीं कि गैर भारतीय मीडिया ने मोदी को छापा ही नहीं है बल्कि स्थान तो दिया है लेकिन सतही तौर पर ही मोदी उनके अखबारों और वेबसाइट में नजर आते हैं. 

वाशिंगटन पोस्ट ने मोदी के भाषण को खास महत्व नहीं दिया है. सिर्फ इतना लिखा है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की महिला प्रबंध निदेशक लगार्द ने मोदी के बयान पर चुटकी ली है कि उनके मुंह से लड़कियों के बारे में सुनते तो अच्छा लगता. उनके कहने का मतलब यह था कि कॉरपोरेट गर्वनेंस में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाए जाने की जो चर्चा दुनिया में चल रही है, उस पर भी प्रधानमंत्री बोलते तो अच्छा रहता. अप्रत्यक्ष तौर पर देखा जाए तो इस तरह महिला प्रबंध निदेशक लगार्द ने मोदी को लगे हाथ नसीहत भी दे डाली है कि मु_ी भर महिलाओं के हाथ कॉरपोरेट गर्वनेंस रहने पर इतराना ज्यादा अच्छा नहीं है, बल्कि इसमें क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है. 

अल जजीरा की वेबसाइट पर भी मोदी के भाषण का कवरेज है. भाषण के साथ दूसरे बयान भी है. जो उनकी आलोचना करते हैं. अल जजीरा ने इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स वाच के कार्यकारी निदेशक केनेथ रॉथ का एक ट्वीट छापा है. केनेथ रॉथ ने कहा है कि मोदी कहते हैं सब एक परिवार हैं, उन्हें बांटिए मत, लेकिन यह बात तो मोदी के समर्थक हिन्दू राष्ट्रवादियों के ठीक उलट है. अर्थात वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने वाले मोदी को यह सिखाने की कोशिश केनेथ रॉथ ने की है कि संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत पर मचे हंगामे को नियंत्रित करना भी मोदी की प्राथमिकता होनी चाहिए. क्योंकि हिंदुस्तान में जिस तरह से फिल्म को लेकर आगजनी और बवाल मचा हुआ है, उससे यही साबित होता है कि हिंदुत्व का नारा देने वालों के बयान सिर्फ खोखले और दोगले हैं.

गार्डियन अखबार ने प्रधानमंत्री मोदी के बयान को कम महत्व दिया है बल्कि कनाडा के प्रधानमंत्री के बयान को लीड स्टोरी बनाई है. इसी स्टोरी में नीचे के एक पैराग्राफ भारत के प्रधानमंत्री के भाषण का छोटा सा हिस्सा छापा है. कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कहा है कि कॉरपोरेट ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को नौकरी दे और यौन शोशण की शिकायतों पर गंभीरता से पहल करे. बहुत ज्यादा ऐसे कॉरपोरेट हो गए हैं जो टैक्स बचाते हैं, सिर्फ मुनाफा ही कमाते हैं और मजदूरों के कल्याण के लिए कुछ नहीं करते हैं. इस तरह की असमानता बहुत बड़ा जोखिम पैदा करती है. यह स्थिति भारत में भी कम नहीं है. संगठित और असंगठित क्षेत्रों में महिला कामगारों की महत्ता को दरकिनार ही रखा जाता है. बल्कि उन्हें एक उपभोग की वस्तु मानकर उनका यौन उत्पीडऩ होता है.

सीएनएन मनी ने लिखा है कि दावोस में दो ही हॉट टापिक हैं. जानलेवा मौसम और ट्रंप. इसकी साइट पर प्रधानमंत्री मोदी का संरक्षणवादी ताकतों वाले बयान का छोटा सा टुकड़ा ही है. लगता है इन्हें उनके भाषण में कुछ नहीं मिला. सीएनन मनी ने लिखा है कि दावोस में कॉरपोरेट इस आशंका और उत्सुकता में हैं कि ट्रंप क्या बोलेंगे. हर तरफ इसी की चर्चा है.



दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में भारत की व्याख्या देखेंगे तो वह दसवीं कक्षा के निबंध से ज्यादा का नहीं है. भारत के प्रति विशेषणों के इस्तेमाल कर देने से निबंध बन सकता है, भाषण नहीं हो सकता. जरूर कई लोगों को अच्छा लग सकता है कि उन्होंने दुनिया के सामने भारत क्या है, इसे रखा. ऐसा क्यों है. जब भी कोई नेता भारत की व्याख्या करता है, दसवीं के निबंध के मोड में चला जाता है. यह समस्या सिर्फ मोदी के साथ नहीं, दूसरे नेताओं के साथ भी है. महिमामंडन थोड़ा कम हो. प्रधानमंत्री को अब 'वसुधैव कुटुंबकमÓ और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:Ó से आगे बढऩा चाहिए. हर भाषण में यही हो जरूरी नहीं है. विदेशी मीडिया कम से कम प्रधानमंत्री के लोकतंत्र वाले हिस्से को प्रमुखता दे सकता था. वो हिस्सा अच्छा था. जरूर उसके जिक्र के साथ सवाल किए जा सकते थे. दो महीने से भारत के चैनलों पर एक फिल्म के रिलीज होने को लेकर चर्चा हो रही है. जगह जगह उत्पात मचाए जा रहे हैं. एक जातिगत समूह में जाति और धर्म का कॉकटेल घोलकर नशे को नया रंग दिया जा रहा है. राजस्थान के उदयपुर में एक हत्या के आरोपी के समर्थन में लोगों का समूह अदालत की छत पर भगवा ध्वज लेकर चढ़ जाता है और डर से कोई बोलता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के चार चार सीनियर जज चीफ जस्टिस के खिलाफ प्रेस कांफ्रे.स कर रहे हैं. ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में लोकतंत्र को चुनौती मिल रही है, विदेशी मीडिया संस्थान प्रधानमंत्री मोदी के इस भाषण को प्रमुखता दे सकते थे.

Monday, January 22, 2018

छाया है वसंत का उल्लास


छाया है वसंत का उल्लास

हो रहा शीत ऋतु का ह्रास 
धरा ने ओढ़ी धानी चुनरिया 
खेतों में पसरी पुष्प चदरिया 
दिख रहा उत्सव का आकाश 
छाया है वसंत का उल्लास

राहों में बिखरी गुनगुनी धूप

अमुआ पर भी झूले हैं पुष्प

गेहूं पर भी चढऩे लगा है रंग

हिलमिल कर रहें हम भी संग 

हर घर में फैले ऐसा प्रकाश 

छाया है वसंत का उल्लास 


हे मां, वीणावादिनी वर दे हमको 

सब जग खुशी, और पूजें तुमको

हंस सी चलते रहे हम चाल 

विद्या कौशल और बुद्धि विशाल 

जिससे हो बुराइयों का विनाश 

छाया है वसंत का उल्लास









Wednesday, January 10, 2018

बदल डालो, दफा 302...सजा-ए-मौत...फांसी



https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%B8%E0%A5%80

यह सुनकर रूह कांप जाती है. दिल-दिमाग कौंध उठता है. जिसे ये सजा मिलती है, उसकी आधी जान तो सजा सुनकर ही निकल जाती है. सजा सुनाने वाला जज भी अपने मन को काबू में नहीं रख पाता. एक तरह से जज की भी मानवीय संवेदनाएं उस एक दिन के लिए मर जाती हैं. जज अपनी कलम से सजा-ए-मौत के नाम पर न्याय की कसौटी पर खड़ा होता है. लेकिन सजा सुनाने के बाद जज की मनोदश समझना कठिन है. क्योंकि अदालत प्रत्यक्ष तौर पर संविधान की धारा 21 के तहत मुजरिम से जीने का अधिकार छीन लेती है. किसी व्यक्ति से जिंदगी जीने का अधिकार छीन लेना, यह मानव अधिकारों का खुला उल्लंघन है. हालांकि जज सजा भी संविधान की धाराओं के अंतर्गत ही देता है.

बहरहाल, आज बात मुजरिम और जज की मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं की नहीं है, बल्कि सजा-ए-मौत के तरीके पर उठने वाली बहस को लेकर चल रही है. 09 जनवरी मंगलवार को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने केंद्र सरकार को मृत्युदंड के तहत फांसी के विकल्प सुझाने के लिए चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि दूसरे देशों में सजा-ए-मौत के लिए क्या तरीके अपनाए जाते हैं. उच्चतम न्यायालय ने यह साफ किया है कि वह यह तय नहीं करेगी कि मौत की सजा देने के लिए क्या तरीका अपनाया जाना चाहिए.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का सोचना और इस बारे में गेंद केंद्र सरकार के पाले में उछाल देना, एक उचित ही कदम है. क्योंकि दुनिया भर में सजा-ए-मौत को लेकर अभी सस्पेंस बना हुआ है. कई देश में मुजरिम को मौत के घाट उतारने के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों पर बहस चल रही है या फिर कानूनों में संशोंधन किया जा रहा है. पंजाब के बहुचिर्चत समाचार पत्र और वेबसाइट के अनुसार आंकड़ों के मुताबिक 2015 में मौत की सजा में दुनियाभर में 50 फीसदी इजाफा पाया गया था. इसके चलते 2014 में दुनियाभर में यह मुद्दा गंभीर रूप से उछला. लिहाजा वर्ष 2015 में ही 102 देशों ने सजा-ए-मौत का प्रावधान खत्म ही कर दिया. 141 देशों में फांसी की सजा खत्म कर दी गई है. साल 2016 में वेनिन और नौरू सरीखे छोटे देशों ने भी अपने कानून से सभी तरह के अपराधों के लिए मृत्युदंड की सजा खत्म कर दी है. भारत सहित 33 देशों में मौत के लिए फांसी ही एकमात्र प्रावधान है.



आंकड़ों के अनुसार दुनिया में 58 देश सजा-ए-मौत के लिए फांसी देते हैं. इंडोनेशिया सहित 73 देशों में सजा-ए-मौत के लिए गोली मारी जाती है. छह देशों में स्टोनिंग यानी पत्थर मारकर मृत्युदण्ड दिया जाता है. पांच देशों में इंजेक्शन देकर और तीन देशों में आरोपी का सर कलम करके सजा-ए-मौत का प्रावधान है. इसके अलावा दुनिया में 58 देश मृत्युदंड के मामले में काफी सक्रिय माने जाते हैं. जबकि 97 देश इसके प्रावधान को समाप्त कर चुके हैं. 2015 के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के 102 देशों ने मौत के प्रावधान को खत्म कर दिया है. चीन एकमात्र ऐसा देश है जहां इंजेक्शन और फायरिंग से मृत्युदंड दिया जाता है जबकि फिलीपींस में केवल इंजेक्शन से फांसी दी जाती है. अमेरिका में इलेक्ट्रोक्यूशन, गैस, फांसी और फायरिंग से सजा-ए-मौत के प्रावधान हैं.



अब सरकार को भी सोचना होगा कि सजा-ए-मौत के प्रावधान में क्या प्रगतिषील और सम्मानजनक विकल्प तैयार किए जाएं. क्योंकि याचिका कर्ता ऋषि मल्होत्रा की याचिका में कहा गया कि मृत्युदंड का तरीका सम्मानजनक होना चाहिए. फांसी की प्रक्रिया पूरी होने में 40 मिनट का समय लगता है. फांसी की सजा जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. सुनवाई के दौरान एडिशनल साॅलिसीटर जनरल पिंकी आनंद ने कहा कि फांसी की सजा ही कारगर है. घातक इंजेक्शन देना कारगर नहीं है.

Sunday, January 7, 2018

एक नई सोचः सांसद वेतन से कंबल की गर्माहट सियासत नहीं





सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी. अपने संसदीय क्षेत्र की जयसिंहपुर विधानसभा के एक छोटे से गांव पलिया में पहुंचते हैं. गरीबों को कंबल बांटते हैं. एक-दो नहीं बल्कि पूरे 2000 कंबल. उनके लिए यह सराहनीय और अनिवार्य कदम है. लगे हाथ नसीहत देते हैं. पहले अपना उदाहरण. मैं वेतन नहीं लेता. इसलिए, अरबपति सांसद और अन्य जनप्रतिनिधि अपना वेतन छोड़ दें. इससे देश के गरीबों की मदद होगी.

मैं यहां दान करने नहीं आया हूं बल्कि इंसानियत और जनप्रतिनिधि होने का धर्म निभाने आया हूं. मेरी भावनाएं, मेरा प्यार गरीबों से है.  
सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी.     
वरूण गांधी का यह सोचना बेशक सियासी हो सकता है. सीजनल भी हो सकता है. सामाजिक कदम को सियासी रूप देना भी कोई नया नहीं है. अन्य दल इसे सुर्खियों में रहने का हथकंडा भी बता दें तो कोई बड़ी बात नहीं है. यह कहना भी गलत नहीं है कि अब जब देश में दोबारा लोकसभा चुनाव का समय नजदीक है तो वरूण गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र में अपनी सक्रियता को बढ़ा दिया है.

बहरहाल, सियासी लोगों की सोच सत्ता के करीब रहती हैः (यह मेरा व्यक्तिगत मानना है.)

..लेकिन सुल्तानपुर के सांसद वरूण गांधी की सोच वाजिब है. 

- अब जेहन में सवाल कौंधता है, क्यों ?

क्योंकि, वजह साफ है, देश में गरीब और बेघर ज्यादा हैं-बहुत ज्यादा हैं.

बेघरों की संख्या में लगातार होती बढ़ोत्तरी का आंकड़ा डराने वाला है. देश की प्रमुख न्यूज वेबसाइट द वायर ने समाचार एजेंसी भाषा के हवाले से कहा है कि न सिर्फ गांव बल्कि देश में शहरी आबादी के बढ़ते बोझ के साथ ही बेघरों की संख्या में इजाफा हुआ है. यहां यह गौर फरमाने वाली बात है कि शहरी क्षेत्रों में बेघर अधिकांषतः गांव से ही आते हैं. अपने रोजगार की तलाष में. और यह तब है, जब हम देष के एक सैकड़ा से अधिक सिटी को स्मार्ट सिटी बनाने चले हैं. और, यहां नगरीय क्षे़त्र में ही, बेघरों को आश्रय मुहैया दिलाना केंद्र और राज्य सरकार के लिए चुनौती है. आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय की ओर से संसद के शीतकालीन सत्र में पेश आंकडे़ से भी चिंता झलकती है. क्योंकि मंत्रालय के अनुसार ही बेघरों की संख्या और मौजूदा आश्रय स्थलों की क्षमता में फिलहाल बहुत अंतर है. शहरी बेघरों को आश्रय मुहैया कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नवंबर 2016 में मंत्रालय द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के शहरी क्षेत्रों में 90 फीसद बेघरों के पास आश्रय का कोई ठिकाना नहीं है.

- अब बेघर और आश्रय स्थलों की कमी का अंतर के लिए कारण, कौन से हैं ?

दरअसल, राज्य सरकारों की इस मामले में उदासीनता, इस दिशा में चल रहे काम की धीमी गति का प्रमुख कारण है. वेबसाइट ने लिखा है कि आश्रय उपलब्ध कराने में धीमी प्रगति के प्रमुख कारणों में राज्यों के स्थानीय प्रशासन में इच्छाशक्ति का अभाव, आश्रयस्थल के निर्माण हेतु जगह की अनुपलब्धता, जमीन की ऊंची कीमत, बेघरों की सही संख्या का नामालूम होना, आश्रयों का गलत प्रबंधन, केंद्र सरकार द्वारा दी गई राशि का सही से उपयोग न होना तथा स्थानीय निकायों और अन्य संबद्ध एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल का अभाव शामिल हैं.

अब सवाल यह उठता है कि देश में आश्रय स्थल, कितने हैं ? 

इस संदर्भ में समाचार एजेंसी भाषा के अनुसार मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार की पहल पर देश भर में 30 नवंबर, 2017 तक 1331 आश्रय स्थलों को मंजूरी दी गई है. इनमें से सिर्फ 789 आश्रय स्थल ही कार्यरत हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित समिति की रिपोर्ट में इसे ना काफी बताया. मंत्रालय ने बताया कि सरकार ने साल 2013 में राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत बेघरों के लिए आश्रय स्थल बनाने के लिए दीनदयाल अंत्योदय योजना 790 शहरों में शुरू की गई थी. तत्समय कांग्रेस की सरकार थी. पूर्ण बहुमत की.
कई राज्यों में भी. 2014 में सरकार बदली और बाद में इसे 4041 कस्बों तक विस्तारित कर दिया गया. योजना के तहत अब तक 25 राज्य और संघ शासित राज्यों में 1331 आश्रय स्थलों के निर्माण की राशि जारी की जा चुकी है. जबकि पिछले साल 30 नवंबर तक सिर्फ 789 आश्रय स्थल ही कार्यरत हो सके. मंत्रालय के आंकड़े गवाह हैं कि बिहार को मंजूर 114 आश्रय स्थलों में सिर्फ 31 बन सके जबकि उत्तर प्रदेश को मंजूर 92 आश्रय स्थलों में महज 5 आश्रय स्थल कार्यरत हो सके हैं.
वहीं दिल्ली, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और मिजोरम का इस मामले में प्रदर्शन श्रेष्ठ रहा. रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में केंद्र सरकार द्वारा सर्वाधिक 216 मंजूर आश्रय स्थलों में से 201 रैन बसेरे बेघरों को आश्रय मुहैया करा रहे हैं. जबकि मध्य प्रदेश के लिए मंजूर 133 में से 129 आश्रय स्थल बन गए हैं. तमिलनाडु को मंजूर 141 में से 102 और मिजोरम में 59 मंजूर आश्रय स्थलों में से 48 कार्यरत हैं.

- अब मंत्रालय ने आगे कदम बढ़ाया है तो क्या है ?

मंत्रालय ने भविष्य की इस चुनौती से निपटने के लिए राष्ट्रीय शहरी नीति बना कर इस पर अभी से अमल शुरू करने की पहल तेज कर दी है. यहां ध्यान देने वाली यह बात है कि जब कांग्रेस की सरकार थी तो राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत आश्रय स्थल बनाए जा रहे थे और अब राष्ट्रीय शहरी नीति के तहत बेघरों और आश्रय स्थलों के बीच के अंतर को कम करने के लिए केंद्रीय स्तर पर प्रयास तेज करने का भरोसा दिलाया है. इस दिशा में न सिर्फ राज्य सरकारों से लगातार संपर्क और संवाद को बढ़ाया गया है बल्कि कड़ाके की सर्दी को देखते हुए अंतरिम व्यवस्था के रूप में किराए पर भवन लेने और बेघरों की पहचान करने के लिए स्वतंत्र एजेंसियों से सर्वेक्षण कराने जैसे उपाय किए गए हैं.

- अब सांसद महोदय समस्या के समाधान जो सोचते हैं, वह तथ्य, क्या है ?

उनका (वरूण) यह कहना कि अरबपति-करोड़पति सांसद अपना वेतन छोड़ें तो गरीबों की मदद हो सकेगी.

वजह उपर्युक्त है. वक्त भी उपयुक्त है.

और जरूरत भी. वो वाजिब है.

ठंड का मौसम सितम बनकर टूट रहा है. हर आम और खास पर सितम बरस रहा है, लेकिन अमीरों पर कम और गरीब-बेघरों पर कुछ ज्यादा. लिहाजा कंबल की गर्माहट सियासत नहीं है. यह जरूरत है.
अतः सांसद (अरबपति और करोड़पति) आगे आएं...समाधान करें...

क्योंकि यदि अरबपति और करोड़पति सांसद को अपना वेतन मिले या न मिले, उन्हें परवाह नहीं. कई मान्य और अमान्यता भरे कारोबारों से उनकी जीवनषैली हाई प्रोफाइल बनी ही रहेगी. उसमें कुछ बदलने वाला है नहीं. सरकार से मिलने वाले संसदीय और विधायकी क्षेत्र के भत्ते पर भी उनका जीवनयापन हो सकता है. क्योंकि एसोसिएषन आॅफ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स (एडीआर) के अनुसार हरेक सांसद को प्रतिदिन के हिसाब से 2000 रूपये भत्ता मिलता है. अपने संसदीय क्षेत्र का 45000 रूपये भत्ता और हवाई तथा रेल सफर की भी सुविधा. वह भी फस्र्ट क्लास में. इसके अलावा प्रत्येक सांसद को 50 हजार रूपये प्रतिमाह सैलरी के रूप में सरकार भुगतान करती है. जो देष की प्रति व्यक्ति आय 33 हजार रूपये से 17 हजार रूपये अधिक है. एडीआर के मुताबिक देष भर में लगभग 54 सांसद अरबपति की श्रेणी में आते हैं.

- तो फिर सरकार, क्या करे ?

सांसद वरूण गांधी का फाॅर्मूला केंद्र और राज्य सरकारों को अपनाना चाहिए. सांसदों को भी रहमदिल होना पडे़गा, बेषक कुर्सी के लिए ही सही. उनका वेतन (यदि उनके द्वारा छोड़ा गया तो) गरीब बेघरों के लिए राहत ही नहीं बल्कि एक बूस्टर डोज की तरह काम करेगा. इसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि एक सांसद को वेतन मिलता है 50 हजार रूपया, जो 54 अरबपति सांसदों के एकजुट होने से प्रति महीने में 27 लाख रूपये हो जाता है. और 12 महीने के अंदर यह आंकड़ा तीन करोड़ 24 लाख रूपये हो जाएगा. चूंकि एक सांसद का कार्यकाल पांच साल का होता है तो यह रकम पांच गुनी होना तय है. जो 16 करोड़ 20 लाख रूपये पर आकर टिकती है. और इसमें यदि सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में बेघरों के आश्रय के लिए अपनी जमीन, किराए के भवन और अन्य संसाधनों को उपलब्ध अपने स्तर से करा दें तो निष्चित तौर पर मंत्रालय की चुनौतियां कम हो जाएंगी, और जनता की उम्मीदों पर खरे उतरने का वादा करके लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर संसद पहुंचने वाले सांसदों की यह नेकनीयत की सोच उन्हें दोबारा सत्ता के करीब भी ला सकती है.