Tuesday, May 1, 2018

'छोटी' देवी का 'बड़ा' इंतजार


'मेरे पति की मौत हो गई, तब से मजदूरी करती हूं, मजदूरी से 100-200 रूपये मिल जाते हैं, उसी से घर चलता है. तहसीलदार कहे हैं कि मैं जगह देती हूं, छोटी रूको, साल भर हो गए, तीन-चार साल हो गए.'
छोटी देवी, 
कुआं निवासी 
गांव नरेनी, 
जिला बांदा.
जी हां, देख लीजिए, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना का एक सच यह भी है. सिर पर छत की आस लिए छोटी देवी का इंतजार बड़ा हो गया है. 2022 तक हर व्यक्ति को आवास मुहैया कराने के लक्ष्य की तरफ बढ़ रही केंद्र और यूपी सरकार के अपने ही सूबे में कुछ यह सूरते-हाल देखने के बाद योजना को अमलीजामा पहनाने और उसकी वास्तविकता का अंदाजा स्वत: हो जाता है. कागजी आंकड़ों में पात्रों को लाभांवित करने के बड़े-बड़े आंकड़े पेश करने वाले अफसर बांदा में इस बेवा को घर देने के लिए आश्वासन तो साल-दर-साल देते चले आ रहे हैं, लेकिन घर नहीं दिया जा रहा है. लिहाजा छोटी देवी ने अपना घर जिला बांदा के नरेनी गांव में स्थित एक कुआं को बना लिया है. कुआं बेशक आज कल कारगर साबित न हो रहे हों, लेकिन छोटी देवी का संसार इसी कुआं में अपना दिन गुजारता है. रातें काटता है. गृहस्थी भी चलाता है. चौका-चूल्हा इसी कुआं पर बना हुआ है. कपड़ों की गठरी से लेकर अपनी जरूरत के सामान के दो बक्से भी इस घरनुमा कुआं की मुंडेर पर रखे हुए हैं. और यहीं पर मेहनत मजदूरी करने के बाद छोटी देवी अपनी बेटी रोशनी के साथ दिन-रैन गुजारती है. छोटी देवी और उसकी बेटी रोशनी की कहानी सुनने और पढऩे के बाद कौन नहीं चाहेगा कि इस महिला की मदद की जाए, लेकिन समाज, जाति, गांव, ग्रामीण, सरपंच, संतरी, अफसर, मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री तक महिला की मदद तो छोडि़ए एक छत मुहैया नहीं करा पा रहे हैं. लिहाजा छोटी ने अब अपनी छोटी सी दुनिया कुआं में ही बसा रखी है. कुआं को ही पता बना लिया है. आधार बन गया है इस पते से. राशन कार्ड बन गया है इस पते से, लेकिन नहीं बना तो एक घर.

जनता को 'सबका साथ-सबका विकास' का अहसास हो सके
सवाल यह उठता है कि छोटी को घर उस समय में क्यों नहीं मिल पा रहा है, जब लाखों घरों पर करोड़ों रूपया फूंकने का दावा सरकार कर रही है. उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़े गवाह हैं कि 2014 से अब तक प्रदेश में 15 लाख 20 हजार 702 घर बनाए जा चुके हैं. प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत सरकार ने 2014 से अब तक 10384 करोड़ रूपये खर्च किए. बांदा का जिक्र छिड़ा है तो इसके आंकड़ों के पन्नों को भी पलट लीजिए. बांदा में 2014 से अब तक 43 हजार 186 घर बनाए जा चुके हैं, लेकिन सवाल है कि वोटों के लिए बिछाई गई आवास की बिसात के बावजूद महिला को कुआं पर अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. जबकि सरकार सबका साथ-सबका विकास का नारे में विश्वास रखती है. अब सवाल ये उठता है कि क्या सिर्फ नारे के आसरे ही आमजन को लाभ पहुंचाने का दावा किया जा रहा है, या धरातल पर भी काम हो रहा है. क्योंकि छोटी देवी की हालत और रिहाइश देखने के बाद तो यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति या जरूरतमंद तक नहीं पहुंच पा रहा है. और फिर छोटी तो एक सिर्फ उदाहरण भर है, 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में ऐसी कई 'छोटी' और 'बड़ी' मिल जाएंगी, जिनके सिर पर छत का साया नहीं है. लिहाजा सरकार को आने वाले चुनावों से पहले ऐसे ही लोगों को चिन्हित करना जरूरी होगा. जिससे जनता को 'सबका साथ-सबका विकास' का अहसास हो सके.



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