Wednesday, June 20, 2018

...पर गजब भी है जिंदगी



जिंदगी भी बड़ी अजीब है. खेल निराले हैं इसके. कभी हंसाती है. गुदगुदाती है. मुस्कुराती है. छेड़ती है और छोड़कर भी चली जाती है. पल में रंग बदल लेती है. रफ्तार भी पकड़ लेती है. गुमसुम भी बैठ जाती है. आशा और निराशा. दोनों का अनुभव कराती है. मन को झिंझोड़ देती है तो सुकून का अहसास भी इसी जिंदगी में मिलता है. कुछ और भी है जिंदगी के हिस्से में.

कभी जिंदगी के सामने आगे बढऩे का एक रास्ता नहीं सूझता तो कभी कई रास्ते खोल देती है. यह हालात अकेले मेरे साथ नहीं. सबके साथ होता है. कभी एक रास्ता दिखता नहीं और जाना जरूरी होता है. कभी कई रास्ते होते हैं तो एक कदम नहीं बढ़ पाता. नहीं तय कर पाते कि कौन सा रास्ता जिंदगी को मंजिल की तरफ ले जाएगा. मंजिल तक पहुंचाएगा भी या नहीं, यह अंर्तद्वंद जिंदगी को हिलाता रहता है.

फिर भी रास्ता तो चुनना पड़ता है जिंदगी को. कई में से एक राह. गलत चुन ली तो जिंदगी से जंग शुरू हो जाती है. हर कदम पर जद्दोजहद करनी पड़ती है. और सही राह चुनी तो जिंदगी की चाल-चलन ही बदल जाती है. मंजिल का सफर आसान लगता है. यह बात अलग है कि मुश्किल होती है. शुरूआत में कठिनाई आती है, लेकिन चलती है मस्तानी चाल.


यूं ही चलता रहता है इस जिंदगी का सफर. परायों का साथ छूटता नहीं है. अपनों का हाथ पकड़ नहीं आता. है ना अजब जिंदगी, पर गजब भी है जिंदगी...

रंज, गम, चैन ओ सुखन के तमाशे देखे इस जिंदगी ने, 
अपनों से छूटते और परायों से जुड़ते नाते देखे जिंदगी ने. 

Tuesday, June 19, 2018

...तो क्या देश में जॉब नहीं है


सिर्फ सर्च ही करते रहिए जॉब्स
जी हां, यह एक बड़ा और यक्ष सवाल है. तो क्या देश में जॉब नहीं है. बेरोजगार यूं ही भटकेंगे. उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी. उनकी पढ़ाई बेकार जाएगी. प्रोफेशनल और एकेडमिक एजुकेशन के सर्टिफिकेट महज एक कागज का टुकड़ा बनकर रह जाएगी. देश में बढ़ती बेरोजगारी की दर को देखने के बाद तो कुछ यही माहौल बनता हुआ नजर आ रहा है. बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र के जरिए 2014 के चुनावी वादे में जिस तरह बेरोजगारों को रोजगार दिलाने का वादा किया था, आज वही बीजेपी सरकार अपनी सत्ता का एक सीजन खत्म करने के कगार पर आ चुकी है, लेकिन बेरोजगार वहीं का वहीं बेरोजगारी की दहलीज पर खड़ा हुआ है. चुनावी वादों के आसरे भाजपा ने सत्ता तो हासिल कर ली, लेकिन 18.6 मिलियन युवा आज भी रोजगार की राह को ताक रहा है. 24 जनवरी 2018 को बिजनेस स्टैंडर्ड की छपी रिपोर्ट बताती है कि बेरोजगारी की दर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है. यह बढ़ती हुई रेट 3.5 परसेंट हैं. जो अब तक की सबसे ऊंची रेट है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) भी इस बात को स्वीकार करता है. रिपोर्ट के मुताबिक आईएलओ ने कहा है कि 2017 में युवाओं की बेरोजगारी 18.6 मिलियन थी. जो 2018 में 3.5 परसेंट बढ़कर 18.6 मिलियन पर पहुंच गया है. यदि जॉब पैदा नहीं हुए और सरकारों ने रोजगार की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए तो यह ग्राफ 18.9 मिलियन तक के आंकड़े को क्रॉस कर जाएगा. यह दावा भी आईएलओ ने बिजनेस स्टैंडर्ड में किया है.
अब सवाल फिर से वही खड़ा हो जाता है कि
...तो क्या देश में जॉब नहीं है?
इसका जवाब है, नहीं, जॉब हैं. हजारों, लाखों में नहीं करोड़ों में हैं. भरपूर हैं. सरकार के पास भी हैं और प्राइवेट सेक्टर में भी. इसका भी आंकड़ा आपको बतलाते हैं.
17271000 नौकरियां सरकारी क्षेत्र में मौजूदा वक्त पर कैंडिडेट्स की राह तक रहीं हैं.
11422000 नौकरी प्राइवेट सेक्टर में खाली हैं.
43 करोड़ 70 लाख नौकरी असंगठित क्षेत्र में हैं.
इस तरह देखा जाए तो यदि यह जॉब भर लिए जाएं तो देश में बेरोजगारी पल भर में खत्म हो सकती हैं. लेकिन देश में ऐसा हो नहीं रहा. इसके पीछे क्या वजह मानी जाए. कि सरकारें इन जॉब से अनभिज्ञ हैं, लेकिन जब देश के सरकारी संगठन या अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ इस बात की पुष्टि करे कि जॉब हैं तो सरकारों की अनभिज्ञता झुठला जाती है. दूसरा कारण, सत्ता खुद ही नहीं चाहती है कि यह जॉब देश भर के उन तमाम युवाओं को दी जाएं, रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं. सरकार के ऐसा न करने के पीछे मंशा क्या है, यह भी जानना जरूरी है. दरअसल, बेरोजगारी के आसरे सियासी दल अपनी चुनावी रोटियां पकाते हैं. बेरोजगारी उनके घोषणा पत्र में अव्वल नंबर पर रहता है, यदि यह खत्म हो गया तो फिर वह क्या मुद्दा टॉप पर रखेंगे, यह उनके लिए 'प्रॉमिस क्राइसिसÓ की कैटेगिरी में आ जाएगा.
लिहाजा एक बार फिर हम उसी सवाल पर आकर खड़ा हो जाते हैं कि
...तो क्या देश में सरकारें जॉब नहीं दे रही हैं?
उत्तर है जी नहीं. सरकारें जॉब बांट रहीं हैं. यह बात अलग है कि उनका बांटने का ग्राफ कछुआ चाल है. आंकड़े बताते हैं कि पांच साल के अंदर ग्रेजुएट किए युवाओं के लिए सिर्फ 8000 से ज्यादा सरकारी जॉब निकलती नहीं है. साल में औसतन 667 से ही सरकारी मुलाजिम बन पाते हैं. यानी जितने युवा नौकरी पाते हैं, उससे कई सौ गुना युवा बेरोजगार की कतार में खड़े नजर आते हैं. तो क्या इसी दिन के लिए देश में बीजेपी को गद्दीनशीन कराया गया था बेरोजगारों के द्वारा. यदि हां, तो फिर खड़े रहिए बेरोजगार की लाइन में. क्योंकि सियासी बिसात पर सत्ता तो अपनी चाल ऐसे ही चलेगी. उसके लिए बेरोजगार सिर्फ एक प्यादा हैं, यदि उन्हें मारने से सियासी बिसात पर 'राजाÓ बचता है तो उन्हें डेंजर कॉलम में रखने के लिए सियासी धुरंधरों के हाथ बिलकुल नहीं कांपेंगे. 

Monday, June 18, 2018

भूख और जिंदगी की जंग

यह कुदरत है. कुदरत ने सभी को जीने का अधिकार दिया है. भूख मिटाने का हक भी सभी को है. फिर चाहे इंसान हो या निरीह पशु-पक्षी. दोनों ही अपनी जिंदगी और भूख के लिए ताउम्र जद्दोजहद में लगे रहते हैं. सांस मिटने तक संघर्ष करते हैं. इस संघर्षशील जीवन में कोई सफल होता है और किसी को असफलता हाथ लगती है. बस यूं ही प्रकृति की जीवन श्रंखला चलती रहती है.

अब तस्वीरों में कौवा और चूहा को ही देखिए. दोनों ही भूखे हैं, लेकिन दोनों की भूख अलग है. कौवा भोजन के लिए तड़प रहा है और चूहा अपनी जिंदगी बचाने के लिए. अपनी-अपनी जगह दोनों ही कुदरती नियम का पालन कर रहे हैं. यह नियम है अपनी भूख को शांत करने का संघर्ष.


तस्वीर पहली कुछ यूं बतलाती है कि चूहा दिखा तो उस पर भूखा कौवा झपट पड़ा. जब इंसान
पशु-पक्षियों को दाना-पानी नहीं देंगे तो हालात यही बनेंगे. पशु-पक्षी एक दूसरे को अपना ग्रास बनाएंगे. इसीलिए कौवे ने भी अपनी पेट की आग शांत करने के लिए चूहे को निगल जाने की ठान ली.


दूसरे चित्र में चूहे का संघर्ष नजर आता है. अपनी सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सांस का अस्तित्व
बचाने के लिए चूहा अपनी सारी ताकत लगा रहा है. एकबारगी तो उसने ऐसा हमला
बोला कि कौवे को भी पीछे दो कदम पीछे खींचने पड़े. 


तीसरी तस्वीर हार और जीत की है. चूहे के हमलावर होने से दो कदम हटने वाले कौवे ने भी इस मर्तबा अपनी सारी शक्ति का भरपूर उपयोग करते हुए चूहे को अपनी चोंच में दबा लिया.
और फिर तब तक छोड़ा ही नहीं, जब तक पूंछ के सहारे मुंह तक चूहे को निगल नहीं गया.
All Pictures By MR. KK Dubey


Saturday, June 9, 2018

'गांव बंद' को मजबूर क्यों किसान

किसानों का संघर्ष
PTI
केंद्र सरकार की कथित किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ किसानों का दस दिवसीय 'गांव बंद' आंदोलन एक जून को शुरु हुआ था. देश के 22 राज्यों में कई किसान संगठन संयुक्त रूप से प्रदर्शन कर रहे हैं. रविवार को किसानों का संघर्ष आराम की अवस्था में आ जाएगा. दरअसल, किसान अपनी उपज के लिए लाभकारी दाम, स्वामीनाथ आयोग की सिफारिशें लागू करने एवं कृषि ऋण माफ करने की मांग कर रहे हैं. उन्होंने शहरों में सब्जियों, फलों, दूध और अन्य खाद्य पदार्थों की आपूर्ति रोक दी है. व्यापारियों का कहना है कि आपूर्ति में कमी के चलते सब्जियों एवं अन्य खाद्य पदार्थों के भाव बढ़ गए हैं.
महज वोटर हैं किसान 
इन परिस्थितियों को देखने के बाद जेहन में बहुतेरे सवाल उठने लगते हैं. सबसे अहम और चौंकाने वाला सवाल तो यह है कि आखिर किसान को अपनी सुविधाओं के लिए कृषि प्रधान देश में आंदोलन के लिए सड़क पर आना ही क्यों पड़ता है? इसका जवाब किसी सरकार के पास नहीं है. न तो पूर्ववर्ती कांग्रेस की सरकार के पास और ना ही मौजूदा वक्त में भाजपा की सरकार के पास. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि किसानों को सिर्फ सरकारों ने वोट बैंक ही माना है. राष्ट्र की एक संपदा के रूप में काम करने वाले किसान सियासी दलों के लिए महज वोटर बनकर ही रह गए हैं.
समस्याओं पर हाथ कोई नहीं रखता
चुनावी सीजन में लुभावनी घोषणाओं के जरिए अपने पक्ष में किसानों से वोट करवा लिया जाता है. फिर पांच साल अन्नदाता अपने अन्न के लिए मोहताज बना रहता है. सिर्फ घोषणाओं के आसरे किसानों को रिझाने की कोशिश की जाती है, लेकिन उनकी मूल समस्या पर हाथ नहीं रखा है. लिहाजा पहले किसानों की समस्याओं पर फोकस करना जरूरी हो जाता है. वो कौन सी जरूरतें हैं, जिनके समाधान के लिए किसानों को लगभग हर साल या फसली सीजन में अपना घर, खेत और गांव छोड़कर सड़क पर आना पड़ता है. पहले यही समझने की कोशिश जरूरी है.
यह समस्याएं कुछ इस तरह की हैं...
पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
The Financial Express
कृषि ऋण माफी
सरकारों ने सार्वजनिक और सहकारी बैंकों के जरिए किसानों को लोन देने की व्यवस्था तो लागू कर रखी है. किसान अपने खेत को बंधक रखकर लोन उठा भी लेता है. अमूमन फसली सीजन पर उसे रूपयों की जरूरत पड़ती है तो वह लोन के लिए आवेदन करता है. उसे लोन भी मिल जाता है, लेकिन लोन माफी के नाम पर उसे सिर्फ धोखा ही मिलता है. सरकारें लोन माफी के लिए अपने घोषणा पत्र में प्रावधान तो करती हैं, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही भूल जाती हैं. यदि लोन माफ होता भी है तो मुट्ठी भर किसानों का.
सिंचाई व्यवस्था
भारत में मानसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है, लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मानसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राच्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
Times Now
उक्त समस्याओं के समाधान को यदि सरकारें गंभीरता से ले लें तो किसान ही नहीं शहर में रहने वाले लोगों का जीवन भी सरल हो सकेगा. महंगाई के हालात नहीं बनेंगे और किसानों के आंदोलन की आग से शहरवासी भी नहीं झुलसेंगे. सरकार को इस विषय पर सोचने की जरूरत है.