Thursday, May 31, 2018

अध्ययन औऱ अध्यात्म का सफर

काम का बोझ और मौसम की तपिश ने झिझोड़ कर रख दिया है। शांति की तलाश चाहिए। अध्यात्म भी जरूरी है। सो चल पड़ा हूँ मैं। आगरा से माउंट आबू की तरफ। स्टेशन पर पहुंचकर लगा कि कमजोर काया कैसे चल पाएगी, लेकिन लगभग एक साल के बाद आज फिर से देशाटन के उत्साह ने लबरेज कर दिया है। 3 मंजिला सीढ़ी चढ़ना मुमकिन नहीं था मेरे लिए, फिर भी अपने साथी मिस्टर जॉनी (अमर उजाला में कार्यरत) के उत्साहवर्धन और सहयोग ने मुझमें ऊर्जा का संचार भर दिया। प्लेटफार्म पर पहुंच गया तो ट्रेन भी खड़ी मिली। अपनी सीट तलाशी और बैठ गया पालती मारकर। फिर वही यात्रा का आनंद लेते हुए चला। कोच में रौनक बनी हुई है। 5 साल की बच्ची अपनी माँ के पास पापा से गर्मी लगने की कह रही है। रेलवे पुलिस फोर्स गश्ती पर है। मिडिल बर्थ खुलने लगी है। ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी है। धीरे-धीरे लोग सीट पर जमकर नींद के आग़ोश में जा रहे हैं। चारों तरफ अंधेरा औऱ दूर चमकती हुई लाइट्स मेरे शहर के पीछे छूटने के संकेत दे रहीं हैं। मेरी आंखों में नींद ने दस्तक देने की शुरुआत कर दी है। शहर पीछे छूट गया। और मैं भी अब सोने के मूड में हूँ। सो अब सोते हैं। कल 10 बजे अपनी मंजिल पर पहुंचने पर फिर आपसे बात करेंगे।

Saturday, May 12, 2018

कुदरत का क्रोध

तीन मई 2018 
अमेरिका के हवाई राज्य में किलायू ज्वालामुखी से निकल रहा लावा 200 फीट तक हवा में उछल रहा है. इससे आसपास के क्षेत्रों में भूकंप के झटके महसूस हो रहे हैं. 31 घर पूरी तरह तबाह हो चुके हैं और 1700 लोगों को अपना घर छोड़कर जाना पड़ा है.
एक्सपर्ट : ज्वालामुखी विशेषज्ञ वेंडी स्टोवाल के अनुसार ज्वालामुखी में बड़ी मात्रा में लावा जमा हुआ है. जब तक यह पूरी तरह निकल नहीं जाता है तब तक विस्फोट जारी रहेंगे. 

सात मई 2018
न्यूजीलैंड के बे ऑफ प्लेंटी के एक फार्म में धरती फट गई. यहां करीब फुटबॉल के दो मैदान के बराबर लंबी और छह मंजिला इमारत जितनी गहरी दरार देखी गई. देश में इसे अब तक का सबसे बड़ा सिंकहोल माना जा रहा है.
एक्सपर्ट : वॉलकैनोलॉजिस्ट बै्रड स्कॉट के अनुसार 200 मीटर लंबा और 20 मीटर गहरा सिंक होल आमतौर पर न्यूजीलैंड में नहीं देखा जाता है. 

11 अप्रैल 2018
130 किमी की रफ्तार से आए तूफान ने आगरा समेत देश के कई शहरों में अपना कहर बरपाया. इस दौरान जान माल की क्षति के साथ फसलों को काफी नुकसान हुआ.
दो मई 2018 
132 किमी की रफ्तार से आया तूफान. देश भर के 13 राज्यों में तूफान की दानवी ताकत ने 130 लोगों की जान ले ली. अभी यह सिलसिला थमा नहीं है. बरकरार है. 
एक्सपर्ट : पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि इन सब घटनाओं के शुरुआती संकेत 18वीं शताब्दी से ही मिलने शुरू हो गए थे, जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ. आज हालात ये हैं कि कभी बवंडरों से या फिर बाढ़ से या फिर शीतलहर से दुबके पड़े हैं.

आने वाले वक्त में बहुत कुछ अप्रत्याशित दिखेगा
उक्त कुछ घटनाएं आमजन और उन खास जनों को समझनी होंगी. सोचना होगा इन घटनाओं के बारे में आखिर धरती पर यह क्या हो रहा है. ज्यों-ज्यों तकनीकी और विकास का विस्तार होता जा रहा है, आबादी पर उतना ही ज्यादा खतरा मंडरा उठा है. कुदरती क्रोध इतना बढ़ता जा रहा है कि 120 किलोमीटर की रफ्तार से तेज हवाएं चलती हैं और उनका कहर ऐसा कि सैकड़ों लोग एक झटके में मौत के मुंह में चले गए. ये कुछ ऐसा है इसके बारे में आज से 15-20 साल पहले कोई आम शख्स अनुमान भी नहीं लगा सकता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने इसकी चेतावनी जरूर उस समय दे दी थी. इसे ग्लोबल वार्मिंग का नाम दिया गया. ग्लोबल वार्मिंग वो दो शब्द हैं, जिनका असर पूरी दुनिया पर अब ज्यादा इफेक्टिव रुप से दिख रहा है. जनवरी में जारी हुए साल 2017-18 के इकोनॉमिक सर्वे में साफ तौर पर कहा गया था कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भारत में मध्यावधि में फार्म इनकम 20 से 25 फीसदी तक कम रह सकती है. पशुधन से होने वाली आय में भी 15 से 18 फीसदी की कमी हो सकती है. ये भविष्यवाणी भारत के एग्रीकल्चर सेक्टर को लेकर की गई है. मगर ग्लोबल वार्मिंग का असर इससे बहुत व्यापक पैमाने पर नजर आ रहा है. आने वाले वक्त में बहुत कुछ अप्रत्याशित दिखेगा. इसका अंदेशा भी वैज्ञानिकों को है.

गर्म प्रदेश ठंडे और ठंडे प्रदेश हो रहे गर्म
कई सारी वेबसाइट और पोर्टल खंगालने के बाद मिलीं अहम जानकारियों को पढऩे के बाद यही निष्कर्ष निकला है कि आने वाला वक्त अगली नस्ल के लिए बेहद चुनौती भरा साबित होगा. ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट तो डराने में कोई कसर नहीं छोड़ती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा गेहूं उत्पादन करने वाला देश केवल ग्लोबल वार्मिंग की वजह से 2050 तक 25 फीसद उत्पादन की कमी झेल सकता है. भारत में बढ़ती आबादी के बीच खाद्यान्न का संकट भी खड़ा हो सकता है. वहीं अमेरिका, यूरोप जैसे ठंडे इलाकों में गेहूं का उत्पादन 25 फीसदी तक बढऩे का अनुमान है. ब्लूमबर्ग की ही रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका, यूरोप में मौसम गर्म हो रहा है, इसकी वजह से वहां ऐसी फसलों की पैदावार बढ़ेगी, जिनका उत्पादन बेहद कम है. यानी ठंडे मौसम वाले प्रदेश गर्म हो रहे हैं और गर्म प्रदेश कहीं ज्यादा गर्म हो रहे हैं.

तूफानों की तीव्रता में 3.5 गुना बढ़ोतरी
दुनिया में मौसम की विस्तार से जानकारी देने वाली मंथली मैग्जीन नेचर क्लाइमेट चेंज जरनल में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में वर्ष 2015 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि आने वाले तूफान कहीं ज्यादा खतरनाक होंगे. वैज्ञानिकों ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से विनाशकारी तूफान पैदा होंगे. रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता प्रोफेसर जिम एल्सनर के मुताबिक, इन दिनों जो तूफान आ रहे हैं वह पहले के मुकाबले बहुत खतरनाक हैं. शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि पिछले 30 सालों में तूफानों की तीव्रता औसतन 1.3 मीटर प्रति सेकंड या 4.8 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ी है.

बढ़ता तापमान बिगाड़ रहा है धरती की सेहत 
इधर, भारत मौसम विज्ञान विभाग (ढ्ढरूष्ठ) के डीजी डॉक्टर केजी रमेश के अनुसार मौसम को लेकर जितनी भी एक्स्ट्रीम कंडीनशन बन रही हैं उनके पीछे ग्लोबल वार्मिंग का हाथ है. जब तापमान बढ़ता है तो वातावरण में मॉइश्चर (नमी) बढ़ जाता है. हवा में नमी का होल्ड ज्यादा हो जाता है और कहीं ना कहीं वो निकलेगा. इसी की वजह से भारी बारिश या भयंकर तूफान जैसी घटनाएं घटती हैं. इसकी वजह से धरती की सेहत भी बिगड़ रही है, इसका खामियाजा हम सभी को उठाना पड़ेगा.

बचने के लिए सदैव सजग रहना होगा
मौसम का मिजाज बदलने का असर पूरे ईको सिस्टम पर पड़ता है. पक्षियों और समुद्री जीवों का बड़े पैमाने पर माइग्रेशन और कुछ प्रजातियों की संख्या में खतरनाक गिरावट इसकी निशानी है. इसके अलावा फसलों की बेल्ट का शिफ्ट होना भी इसका प्रमाण  है. यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना में इकोलॉजी और इवोल्यूशनरी बायलॉजी के प्रोफेसर जॉन वीन्स ने एक्यूवैदर पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इसमें प्रोफेसर कहते हैं कि जलवायु में बदलाव के चलते कुछ प्रजातियां ऐसे इलाकों की ओर चली जाती हैं जो उनके अनुकूल हों. जीवों की कुछ प्रजातियां ऐसी भी हैं जो माइग्रेट नहीं करतीं और आखिर में उनका अस्तित्व मिट जाता है. यह फॉर्मूला सिर्फ पशु-पक्षियों पर ही नहीं बल्कि मानव जाति पर भी लागू होता है. यदि मानव जाति को अपना अस्तित्व धरती पर बचाना है तो पहले धरती को बचाना होगा. आधुनिकता की दौड़ और होड़ में हमें अपने पर्यावरण को भी सहेज कर रखना हमारी जिम्मेदारी बनती है. इसके लिए जरूरी पौधों का रोपण, संरक्षण के अलावा कार्बन उत्सर्जन से बचने के लिए सदैव सजग रहना होगा.

Monday, May 7, 2018

और कहूं तो...

घर-घर बसता हिंदुस्तान है.

मेरे विदेशी मित्र ने मुझसे एक बार पूछा कि आपका देश क्या है, आप कहां रहते हो? 
सवाल सीधा था, सरल था, पर शायद जवाब देने वाला नहीं. 
मैनें भी उसको कुछ यूं जवाब दिया, जो आपको बताता हूं. 

हमारा देश महान है
इसका क्या गुणगान है
सरल जिसकी जुबान है
तहजीब भी आसान है.

और कहूं तो
घर-घर बसता हिंदुस्तान है.

हर बाला देवी प्रतिमा
हर बालक भगवान है
नदी जहां पर माता है
जिसे पूजे हर इंसान है

और कहूं तो 
घर-घर बसता हिंदुस्तान है. 

हर धर्म यहां पर चलता
दिल में दिखता ईमान है
हर पर्व यहां पर मनता
उत्साह का आसमान है

और कहूं तो
घर-घर बसता हिंदुस्तान है.

गोली यहां सैनिक खाता
शहादत उनकी महान है
फिर भी मां यही कहती
मेरा बेटा देश का सम्मान है

और कहूं तो
घर-घर बसता हिंदुस्तान है.



ईसाई-मुस्लिम संग रहते
भगवान का होता गुणगान है
मंदिर में भजन-आरती गूंजे 
मस्जिद से गूंजती अजान है

और कहूं तो
घर-घर बसता हिंदुस्तान है.

Saturday, May 5, 2018

मेरी इच्छामृत्यु जरूरी

'मृत्यु के लिए भी मुखर आवाज उठे, इसलिए मेरी इच्छामृत्यु जरूरी'


 मौत जीवन का सच है, लेकिन यही सच को जब व्यक्ति सहजता से स्वीकार कर लेता है तो यकीनन मृत्यु जीवन के सुखद आनंद की ओर ले जाती है. ऐसी ही कुछ कहानी है आस्ट्रेलिया के 104 वर्षीय बुजुर्ग डेविड गुडाल की. जो 10 मई को इच्छामृत्यु को स्वीकार करने के लिए स्विट्जरलैंड रवाना हो चुके हैं. दरअसल, आस्ट्रेलिया में इच्छामृत्यु की इजाजत न होने के कारण गुडाल स्विट्जरलैंड में अंतिम सांस लेंगे.

साइंटिस्ट हैं गुडाल 
पर्थ के एडिथ कोवान यूनिवर्सिटी में गुडाल मानद रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने कई शोध कार्य किए हैं. गुडाल का मानना है कि उनके इस कदम से स्वेच्छा से मौत को अपनाने का मुद्दा आस्ट्रेलिया में जोर पकड़ेगा. इच्छामृत्यु की वकालत करने वाली संस्था एक्जिट इंटरनेशनल ने कहा कि आस्ट्रेलिया के सबसे बुजुर्ग और प्रमुख नागरिक को सम्मान के साथ अंतिम सांस लेने के लिए दूसरे देश जाने को मजबूर करना उचित नहीं है.

नहीं है कोई बीमारी
गुडाल को वैसे तो कोई बड़ी बीमारी नहीं है, लेकिन उनका मानना है कि अब उनके जीवन की उपयोगिता नहीं है. उन्होंने स्विट्जरलैंड के बैसेल स्थित एजेंसी लाइफ सर्किल से इच्छामृत्यु के लिए समय लिया है. एजेंसी इस काम में सहायता करती है. आस्ट्रेलिया से रवाना होने से पहले गुडाल ने बताया कि वह स्विट्जरलैंड जाना नहीं चाहते थे, लेकिन खुदकशी का अवसर पाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा, क्योंकि आस्ट्रेलिया में इसकी अनुमति नहीं है.
कई देशों में इच्छामृत्यु गैरकानूनी 
गौरतलब है कि दुनिया के 147 देशों में इच्छामृत्यु गैरकानूनी है. आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में पिछले साल इसे वैधानिक बनाने तक यह प्रतिबंधित था. लेकिन वहां यह कानून जून 2019 से लागू होगा. इसके अलावा केवल वैसे व्यक्ति को इसकी इजाजत होगी जिसे असाध्य रोग हो और जिसकी जिंदगी छह महीने से कम हो.
नम आंखों से बोला गुडबाय 
बीते बुधवार को जब गुडाल विमान में सवार हुए, तो सभी परिजनों ने गुडाल को घेर लिया और अंतिम गुडबाय कहा. वह परिवार के अन्य सदस्यों के साथ फ्रांस के बोरडॉक्स में कुछ दिन बिताने के बाद स्विट्जरलैंड पहुंचेंगे.
योगेश मिश्रा
गेस्ट राइटर











Wednesday, May 2, 2018

बदलाव: सेक्स चेंज का खेल



यूरोपीय देशोंं में पहले जहां भारत की पहचान सरोगेसी देश के रूप में होती थी, लेकिन अब सरोगेसी को लेकर कड़े नियम बनाने के बाद कुछ बदलाव देखने को मिल रहा है तो वहीं दूसरी ओर अब यूरोपीय देशों में भारत की नई पहचान देखने को मिल रही है. आईवीएफ और सरोगेट के बाद भारत दुनिया में सबसे कम पैसों में सेक्स चेंज कराने का वाला देश बनता जा रहा है. सेक्स चेंज कराने के बढ़ते बाजार को लेकर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भी चिंता जता रहा है. आंकड़ों को देखे तो बीते 10 सालों में भारत में सेक्स चेंज कराने का मार्केट धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. जानकारों का मानना है कि अगर इसी रफ्तार से कई अस्पताल खुलते रहे तो 2020 तक मार्केट दुगुना हो सकता है. इसका असर यह देखने को मिल रहा है कि देश के कई मेट्रोपोलेटियन सिटी में ऐसे अस्पतालों की संख्या में इजाफा हो रहा है. आपको जानकार हैरत होगी कि दुनियाभर के लोग सेक्स चेंज कराने के लिए भारत आने को आतुर है. इसके कई कारण है कि पहला तो यही है भारत में सेक्स चेंज कराने की थैरेपी बाकी के कई देशों से सस्ती और सुगम होती है. देश में बढ़ते व्यापार को लेकर दिल्ली में भी सेक्स चेंज की थैरेपी से जुड़े कई अस्पताल भी खुलने शुरू हो गए है. इन अस्पतालों में सबसे ज्यादा इन्क्वायरी विदेशों से ही आती है. हालांकि अभी दिल्ली में सेक्स चेंज ऑपरेशन का मार्केट छोटा है, लेकिन यह तेजी से बढ़ रहा है. सेक्स चेंज ऑपरेशन ज्यादा सस्ता होने के कारण विदेशों से भी लोग भारत आना चाह रहे हैं.

कई लोग अब भारत का रूख कर रहे हैं


दरअसल, यूरोप के कई देशों में सेक्स चेंज कराने का ऑपरेशन काफी महंगा होता है. लिहाजा यूरोपीय देशों के ट्रांसजेंडर्स भारत में ऑपरेशन करने की चाह रखते हैं. इससे भारत में यह बाजार धीरे-धीरे बढ़ रहा है. आंकड़ों की मानें तो हर साल लगभग 200 भारतीय ही सेक्स चेंज कराने के लिए आते हैं. इसके अलावा हर साल तकरीबन 20 विदेशी ऑपरेशन के लिए भारत आते हैं. बीते दिनों यूएस आर्मी का एक रिटायर्ड जवान भी दिल्ली में सेक्स चेंज कराने के लिए आया था. बेट्टी ऐनी आर्चर नाम के इस पूर्व सैनिक ने दिल्ली के ओलमेक अस्पताल में अपना सेक्स चेंज कराया. बेट्टी ऐनी आर्चर ने अपने जिंदगी के अनुभव के बारे में बताया था कि पुरूष के शरीर में खुद को कैद महसूस कर रहा था. लिहाजा उसने जिंदगी का सबसे बड़ा निर्णय लिया. आमतौर पर थाईलैंड को सेक्स चेज कराने के लिहाज से सबसे मुफीद माना जाता था, लेकिन वहां भी ऑपरेशन की फीस बढऩे से कई लोग अब भारत का रूख कर रहे हैं.

 लिंग परिवर्तन करवाने वालों की संख्या और ऊपर जा सकती है

वैसे किसी भी व्यक्ति के सेंक्स चेज कराना आसान नहीं होता है. इसमें एक व्यक्ति कुछ ही दिनों दूसरी जिंदगी में प्रवेश कर जाता है. यानि उसको महिला से पुरूष या पुरूष से महिला बनना होता है इसके लिए उसे मानसिक तौर से भी तैयार रहना होता है. एक पुरूष जो सेक्स चेंज करना चाहता है उसे पहले 18 महीनों तक औरत की तरह रहना पड़ता है. उसे एक हार्मोन थेरेपी भी करानी पड़ती है. हालांकि अब कई ट्रांसजेंडर्स सेक्स चेंज कराने की चाहत रखते हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत में सेक्स चेंज ऑपरेशन पश्चिमी देशों के मुकाबले कहीं सस्ता है और फिर यहां वेटिंग लिस्ट भी नहीं है, यानी लोगों को सालों साल इंतजार नहीं करना पड़ता.
यही नहीं दिल्ली में जहां एक ऑपरेशन के लिए चार से पांच लाख रूपए खर्च हुए तो वहीं अमेरिका में 20 लाख के आसपास का खर्च आता. सस्ती थैरेपी और ऑपरेशन को बढ़ावा देने के लिए सरकार मेडिकल टूरिज्म को भी बढ़ावा दे रही है. इससे भी बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. सरकार के एम वीजा योजना से भी इसमें काफी बदलाव आने की उम्मीद है. हालांकि फिलहाल यह व्यापार करीब 3 अरब डॉलर के आसपास है लेकिन जानकारों की मानें तो यह बाजार 2020 तक तकरीबन 6 अरब डॉलर के आसपास पहुंच जाएगा. इसके अलावा मायानगरी मुंबई में सेक्स चेंज कराने की भी अजब होड़ भी देखी जा रही है. ऐसे मे मेट्रेापोलेटियन सिटी में जहां नए-नए अस्पताल खुल रहे हैं, लिहाजा मेडिकल साइंस की दुनिया में एक नया बाजार बन रहा है.
दूसरी ओर सामाजिक बदलाव की भी नई इबारत लिखी जा रही है. अब सवाल यही उठ रहा है कि सेक्स चेंज करवाकर नई पहचान पाने की ये होड़ किस दिशा में जाएगी यह बहस का मुद्दा है. खबरों की मानें तो मुंबई, नवी मुंबई और ठाणे में लड़के से लड़की और लड़की से लड़का बनने का क्रेज बढ़ा है. हर साल करीब 50 लड़के लड़की में तब्दील हो रहे हैं. बताया जा रहा है कि यह ट्रेंड जितनी तेजी से बढ़ा है उससे लिंग परिवर्तन करवाने वालों की संख्या और ऊपर जा सकती है.

सरकार को कोई कार्रवाई करनी होगी

सेक्स चेंज करने वाले अस्पताल पहले शहर में पहले एक दो ही थे, लेकिन अब इनकी भी संख्या तेजी से बढ़ रही है. इसके अलावा डॉक्टरों का कहना है कि मेल से फिमेल बनने की संख्या बहुत ज्यादा है. पुरुष से महिला बनना आसान भी है और सफलता का प्रतिशत भी ज्यादा है. जिन लड़कों के हाव-भाव लड़कियों जैसे नजर आते हैं, उन्हें आसानी से मेल से फिमेल बनाया जा सकता है. उन्हें बस कुछ महीनों की थैरेपी से गुजरना होता है. उसके बाद ही उनका सफल ऑपरेशन होता है. यकीनन, मेडिकल सांइस की तरक्की से जहां नए रास्ते खोजे हैं तो वहीं दूसरी ओर नई बहस को भी जन्म दिया है. वहीं भारत सरकार की मेडिकल वीजा से भी विदेशी भी आसानी से भारत आकर सेक्स चेज कराने का ऑपरेशन करा रहे हैं. मसलन भारत की भी अब एक नई पहचान विश्व मानचित्र पर बन रही है. ऐसे में इस बाजार पर लगाम लगाने के लिए भारत सरकार को कोई कार्रवाई करनी होगी. (क्रमश:)

योगेश मिश्रा
गेस्ट राइटर 

Tuesday, May 1, 2018

'छोटी' देवी का 'बड़ा' इंतजार


'मेरे पति की मौत हो गई, तब से मजदूरी करती हूं, मजदूरी से 100-200 रूपये मिल जाते हैं, उसी से घर चलता है. तहसीलदार कहे हैं कि मैं जगह देती हूं, छोटी रूको, साल भर हो गए, तीन-चार साल हो गए.'
छोटी देवी, 
कुआं निवासी 
गांव नरेनी, 
जिला बांदा.
जी हां, देख लीजिए, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना का एक सच यह भी है. सिर पर छत की आस लिए छोटी देवी का इंतजार बड़ा हो गया है. 2022 तक हर व्यक्ति को आवास मुहैया कराने के लक्ष्य की तरफ बढ़ रही केंद्र और यूपी सरकार के अपने ही सूबे में कुछ यह सूरते-हाल देखने के बाद योजना को अमलीजामा पहनाने और उसकी वास्तविकता का अंदाजा स्वत: हो जाता है. कागजी आंकड़ों में पात्रों को लाभांवित करने के बड़े-बड़े आंकड़े पेश करने वाले अफसर बांदा में इस बेवा को घर देने के लिए आश्वासन तो साल-दर-साल देते चले आ रहे हैं, लेकिन घर नहीं दिया जा रहा है. लिहाजा छोटी देवी ने अपना घर जिला बांदा के नरेनी गांव में स्थित एक कुआं को बना लिया है. कुआं बेशक आज कल कारगर साबित न हो रहे हों, लेकिन छोटी देवी का संसार इसी कुआं में अपना दिन गुजारता है. रातें काटता है. गृहस्थी भी चलाता है. चौका-चूल्हा इसी कुआं पर बना हुआ है. कपड़ों की गठरी से लेकर अपनी जरूरत के सामान के दो बक्से भी इस घरनुमा कुआं की मुंडेर पर रखे हुए हैं. और यहीं पर मेहनत मजदूरी करने के बाद छोटी देवी अपनी बेटी रोशनी के साथ दिन-रैन गुजारती है. छोटी देवी और उसकी बेटी रोशनी की कहानी सुनने और पढऩे के बाद कौन नहीं चाहेगा कि इस महिला की मदद की जाए, लेकिन समाज, जाति, गांव, ग्रामीण, सरपंच, संतरी, अफसर, मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री तक महिला की मदद तो छोडि़ए एक छत मुहैया नहीं करा पा रहे हैं. लिहाजा छोटी ने अब अपनी छोटी सी दुनिया कुआं में ही बसा रखी है. कुआं को ही पता बना लिया है. आधार बन गया है इस पते से. राशन कार्ड बन गया है इस पते से, लेकिन नहीं बना तो एक घर.

जनता को 'सबका साथ-सबका विकास' का अहसास हो सके
सवाल यह उठता है कि छोटी को घर उस समय में क्यों नहीं मिल पा रहा है, जब लाखों घरों पर करोड़ों रूपया फूंकने का दावा सरकार कर रही है. उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़े गवाह हैं कि 2014 से अब तक प्रदेश में 15 लाख 20 हजार 702 घर बनाए जा चुके हैं. प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत सरकार ने 2014 से अब तक 10384 करोड़ रूपये खर्च किए. बांदा का जिक्र छिड़ा है तो इसके आंकड़ों के पन्नों को भी पलट लीजिए. बांदा में 2014 से अब तक 43 हजार 186 घर बनाए जा चुके हैं, लेकिन सवाल है कि वोटों के लिए बिछाई गई आवास की बिसात के बावजूद महिला को कुआं पर अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. जबकि सरकार सबका साथ-सबका विकास का नारे में विश्वास रखती है. अब सवाल ये उठता है कि क्या सिर्फ नारे के आसरे ही आमजन को लाभ पहुंचाने का दावा किया जा रहा है, या धरातल पर भी काम हो रहा है. क्योंकि छोटी देवी की हालत और रिहाइश देखने के बाद तो यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति या जरूरतमंद तक नहीं पहुंच पा रहा है. और फिर छोटी तो एक सिर्फ उदाहरण भर है, 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में ऐसी कई 'छोटी' और 'बड़ी' मिल जाएंगी, जिनके सिर पर छत का साया नहीं है. लिहाजा सरकार को आने वाले चुनावों से पहले ऐसे ही लोगों को चिन्हित करना जरूरी होगा. जिससे जनता को 'सबका साथ-सबका विकास' का अहसास हो सके.