निदा फाजली ने यह गजल शायद उस वक्त कही होगी, जब उनका मन आसपास के माहौल को देखकर खिन्न हुआ होगा. तब शायद उन्होंने कलम उठाकर 'कलमकारों' को झकझोरने और एकजुट होने की बात कहने की एक भरसक कोशिश की, यह बात अलग है कि 'कॉरपोरेट कलमकार' उनकी यह लाइनें समझने के बावजूद जानबूझकर अनदेखा कर रहे हैं. वैसे गुस्सा आज मैं भी हूं. इसलिए नहीं कि आसिफा को न्याय मिलने की लड़ाई में शामिल हूं. उन्नाव की पीडि़ता के साथ खड़ा हूं. बल्कि इसलिए क्योंकि आज पत्रकारिता की जमात में खड़ा होकर भी मैं अकेला हूं. अपनी बात तो कह सकता हूं, पर सुना किसी को नहीं सकता. क्योंकि 'यशवंत' को मिलने वाली फांसी का मजमा तो यहां लगा नही है, फिर भी फांसी तो दी ही जा रही है.आंख को जाम लिखो, जुल्फ की बरसात लिखोजिससे नाराज हो उस शख्स की हर बात लिखो
सोच रहे होंगे किसकी फांसी?
मीडिया जगत में दिखने वाली एकजुटता फांसी के फंदे पर झूलने जा रही है.
आज यह बात तब लिख रहा हूं जब देश के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा संचालित केंद्रीय हिन्दी संस्थान के पत्रकारिता विभाग से पासआउट स्टूडेंट्स की मीट में शिरकत की. पहले पहल नजर आया, आयोजकों ने कुर्सियां ज्यादा मंगा लीं, लंच पैकेट भी संख्या के सापेक्ष अधिक लग रहे थे, यह बात अलग है कि कार्यक्रम खत्म होते-होते एक-दो कुर्सी खाली रहीं और दो लंच पैकेट ही बचे, लेकिन असल बात यह थी कि किसी भी शहर में कोई बड़े इवेंट के अवसर पर 'पत्र' से ज्यादा 'पत्रकार' नजर आते हैं. तमाम 'तथाकथित' होते हैं तो कुछेक 'बहुचर्चित', लेकिन अपने ही इवेंट में नदारद रहते हैं. चिंता इसी बात की थी. चर्चा भी हुई. कुछेक बेबाकी से बोले तो कुछेक होठों को दबाकर.
भई क्यों, ऐसा क्या कारण है?
आमजन की समझ से परे हो सकता है. खास जन को फर्क नहीं पड़ता.
कुछ कारण अंगुलियों पर गिने. अब लिख रहा हूं.
वजह पहली साफ है, कई अपने 'रसूखदार' बैनर के मुगालते में रहते हैं.
दूसरी वजह यह है, कुछ वरिष्ठता को कनिष्ठता में बदलने से बचते हैं.
तीसरा कारण यूं है, कुछ 'बिजी विदआउट वर्क' वाले जर्नलिस्ट बने हैं. (शायद मैं भी)
चौथी और आखिरी वजह, 'क्या है इस इवेंट और संगठन में' की सोच भी जेहन में घर किए हुए है.
चिंताजनक है ना ये कारण.
लेकिन, एक बहुत अच्छी, सच्ची और गंभीर बात कही. एक शख्स ने इवेंट के दरम्यान. आप 'बड़े' बाद में बने, पहले संस्थान के 'स्टूडेंट' रहे. 'पत्रकारिता के खलीफा' सरीखे इस शख्स ने अपने पर्यावरणविद् होने का अनुभव दर्शाते हुए अप्रत्यक्ष तौर पर सधे हुए लहजे में कहा कि पहले पौधे थे आप, कई बरसों बाद वटवृक्ष बने हैं. सही कहा आपने 'सर जी'. ओहदों पर बैठकर गुमान करने वाले लोग धरती कम आसमान की तरफ निगाह ज्यादा रखते हैं. पर उन्हें पता नहीं उनके पैर अब भी जमीन पर ही टिके हुए हैं. इस बात का इल्म जब उन्हें लगता है, तब तक वह अपनी शख्सियत को खो चुके होते हैं.
इसलिए
'मेरे दोस्तों, उठो, चलो, भागो, दौड़ो और मरने से पहले जीना न छोड़ो' शब्दों को साकार करिए. अपनी जमात से जुडि़ए. उनकी मदद करिए. उनके लिए आगे बढि़ए. हम एक नहीं होंगे तो 'मालिकान' ही हम पर अपने 'दबावों का मकान' बना लेंगे.
क्योंकि निदा फाजली ने चार लाइन ये भी कहीं हैं कि...
कच्चे बखिय़े की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं,
हर नये मोड़ पे कुछ लोग बिछड़ जाते हैं
भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में,
इस बेखय़ाली में कई शहर उजड़ जाते हैं

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