Monday, April 9, 2018

ये पाठ पढ़ा रहा देश का एक रेलवे स्टेशन


झाड़ू उठाओ. घर झाड़ो. सड़क झाड़ो. मैदान झाड़ो. स्कूल झाड़ो. दफ्तर झाड़ो. स्टेशन झाड़ो. स्टैंड झाड़ो. मिशन चलाओ. स्वच्छता का. स्वच्छ भारत का. ताकि फील गुड हो. शोर सफाई का मचा हुआ है. यह हल्ला कहीं रियल है तो कहीं आर्टीफिशियल. इसी कड़ी में जून 2017 का वाकया याद आता है. अपने भोपाल, इंदौर और उज्जैन के सात दिवसीय टूर के दौरान जब लौट रहा था तो एक स्टेशन दिखा. 

उज्जैनी एक्सप्रेस में बैठे हुए शाम के करीब छह बजे होंगे. तभी उज्जैन से कोई 100 किमी दूर स्टेशन है पढ़ाना-मऊ नजर आया. कहने को एक बहुत छोटा सा स्टेशन है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं के मामले में कई बड़े स्टेशनों को मात देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है. पीने के लिए पानी की टंकी है. फिर भी हैण्डपम्प ताजा पानी उगल रहा था. पक्का प्लेटफॉर्म टाइल वाला. बैठने के लिए बेंच थी तो धूप से बचाते टिनशेड के नीचे इक्का-दुक्का पैसेंजर थे. आसपास हरियाली आंखों को सुकून दिला गई. करीने से रखे गमले और सबसे ज्यादा सफाई ने इंप्रेस किया. स्टेशन पर एंट्री करते ही अजीब सी बदबू भी नहीं महसूस हुई. समुद्र तल से 443 फीट ऊंचाई वाला अद्भुत अनुभव करा गया. यह भी महसूस करा गया कि ठान ली जाए तो मुश्किल कुछ नहीं. आसान है सब करना. इच्छा शक्ति के बल पर फिर चाहे स्टेशन हो या अपना देश. उम्मीद है कि देश की सरकार भी स्टेशन का तरीका आजमाएंगीं.

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