Friday, December 2, 2016

है ना कमाल की बात

मित्रों नमस्कार, 

4758 लोग कतार में नहीं है

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस शक्तिशाली शैली में 500 और 1000 रु. के करंसी नोट बंद करने का निर्णय लिया, उससे हर अच्छे नागरिक को यही उम्मीद बंधी हुई है. और यही कारण है कि समूचा देश कतारबद्ध है. धक्के खा रहा है. 70 से अधिक निर्दोष, वरिष्ठ भारतीय नागरिक कतार में अपनी जान गंवा चुके हैं. अनेक विवाह समारोह स्थगित हो गए हैं. गांवों में छोटे-छोटे कर्जे मिलने बंद हो गए हैं. देश त्रस्त है. भटक रहा है. मध्यमवर्गीय तो टूट से गए हैं. महिलाएं अपनी घरेलू बचत को देख-देखकर दुखी, भयभीत और सशंकित हंै. घबराहट मची हुई है चारों ओर.

एक बात ये भी है कि कोई ईमानदार इसलिए नहीं होता कि उसे ईमानदार के रूप में पहचाना जाए. वह तो मन से ईमानदार होता है. अपने समर्पण से होता है. अपने त्याग से होता है. अपने कर्तव्य से होता है. यही उम्मीद लोगों को जगी हुई है. ईमानदारी को प्रतिष्ठा मिलने की आशा जगी हुई है. क्योंकि ईमानदार होना व्यक्ति का अपना चरित्र होता है. प्रतिष्ठा के लिए ईमानदारी कारोबार में अपनाई जाती है. वहां यह अनिवार्य है. कुछ यही रवैया सरकारों ने अपनाया है. अपने ईमानदार होने का. जब सरकारें ईमानदार हो जाएंगी तो कोई बेईमान नहीं रहेगा. शायद यही मंशा है मिस्टर प्राइम मिनिस्टर जी की. 

अब बात करते हैं, उस कतार की, जो बैंकों के बाहर लगी है. सर्द सुबह में. घने कोहरे में. ठिठुराती रातों में. ये कतार है मितव्ययी घरेलू महिला की. ऊर्जावान युवा की. भविष्य के प्रति आशांवित युवतियों की. जीवन के अंतिम पड़ाव में जुड़ते बुजुर्गों की. बेहतर स्वास्थ्य लाभ की कामना करने वाले बीमारों और तीमारदारों की. सब लाइन में है. लंबी है लाइन. अनवरत. न टूटने वाली. पर कहीं अनुशासनहीनता नहीं. 

और सुनिए इससे भी अचरज और धीरज रखने वाली बात ये है कि कुछ लोग कतार में नहीं है. बिजनेसमेनों की संख्या अनगिनत है. लेकिन कुछ लोग गिनती के हैं. जो इस देश की जनता ने अपनों में से गिने हैं. चुने हैं. भेजे हैं. नेतृत्व करने को. अपनी बात कहने को. अपने विकास को. संसद तक. विधानसभा तक. है ना कमाल की बात. 4758 लोग कतार में नहीं है. 543 संसद सदस्य और 4215 विधायक. 

दरअसल, इनके लिए लाइन अमर्यादित व्यवहार है. फिर चाहे बैंक की हो, सरकारी दफ्तर की हो, अस्पतालों की हो, या फिर जनता के घर के बाहर दस्तक देने की हो. आज जब जरूरत हर किसी को वोट से ज्यादा नोटों की है, तो ये लोग नोटों से क्यों दूर भाग रहे हैं, ये एक सवालिया निशान खड़े करता है. मुश्किल इतनी भर भी नहीं है, देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव आने वाले हैं, फिर भी ये बेफिक्र हैं, तो शक का दर्पण खड़ा ही हो जाता है. 
बहरहाल, आज जब देश लाइन में है. नेट के लिए, नोट के लिए, वोट के लिए, खातों के लिए, रोजगार के लिए, हक के लिए, आरक्षण के लिए, संरक्षण के लिए. उस दौर में संसद में मिस्टर जी का मनमोहन बन जाना लोगों की उम्मीदों को तोड़ता हुआ नजर आता है. इसलिए बोलिए जनहित में, तोलिए जनहित में और खोलिए जनहित में. जरूरी राहों को. 

Wednesday, November 16, 2016

सुनिये मोदी जी अपनी 'माँ' की

प्रिय नरेंद्र दामोदर मोदी जी,
नमस्कार,
एक माँ की तरफ से ढेर सारा आशीर्वाद। आपने काला धन निकालने की जो मुहिम छेड़ी है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है। आपकी नेकनीयत पर मुझे कोई शक नहीं है। बल्कि आपकी ईमानदारी पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़े करना आपकी 15 वर्ष से अधिक शासन व्यवस्था के अनुभव को चुनौती देने के समान होगा। यह आपके राजनितिक कद को भी छोटा करने का दुस्साहस होगा। लेकिन चूँकि मैं एक 80 वर्ष से अधिक उम्र की वृद्ध माँ और इस देश की सम्मानित नागरिक के साथ वोटर भी हूँ तो ये पूछने का हक़ रखती हूँ कि आखिर एक सप्ताह से बैंकों के बाहर कोई 'जनसेवक' नजर क्यूँ नहीं आ रहा ? सभी राजनीतिक संगठन आम जनता के इस महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न कराने से क्यूँ कतरा रहे हैं ? वोट बनवाने या डलवाने के टाइम पर तो वह हर चौखट की कुण्डी खटखटाने से नहीं हिचकते। मैं पूछना चाहती हूँ कहाँ हैं वह सामाजिक संगठन, जो समाज सेवा का डंका बजाते हैँ, लेकिन आज बुजुर्गों की मदद करने के लिए उनके दर्शन दुर्लभ हैं। कहाँ हैं वह चेरीटेबल ट्रस्ट जो बुजुर्गों के कल्याण के लिए धन्ना सेठों से लाखों का चंदा बटोर लेते हैं, लेकिन आज 4000 रूपये के खुले देने के लिए वह कंगाल हो गए है। चूँकि हम बुजुर्गों के आप प्रधान सेवक हैं तो क्या आपकी 'बूढ़ी प्रजा या बूढ़ी माँ' यूँ ही दिन-रात लाइन में लगी रहेगी ? आप कुछ तो बूढ़ी माँ के दर्द पर मरहम मलो। ताकि देश भर की माँओं को 'हीरा बेन' होने का अहसास हो।
आपकी मदद की बाट जोहती
बैंक के बाहर बैठी
एक 'बूढ़ी माँ'।

Thursday, October 6, 2016

सलामी मांगती शहादत

मित्रों नमस्कार रियो ओलंपिक. बीते जमाने की बात है. कई अनुभव रहे. खट्टे ज्यादा. मीठे कम. बुरे ज्यादा. अच्छे कम. हारे ज्यादा. जीते कम. हाँ, कुछ मायने में हम ज्यादा रहे. संख्या बल का दल. 119 की टोली. जिनमें नए ज्यादा, पुराने कम. खैर, अब टोक्यो पर फोकस है. भविष्य दूर है. अभी तो जश्न का माहौल है. दो तमगे सेलिब्रेट कर रहे है. सम्मान की होड़ है. पुरुस्कार बेजोड़ है. सलमान से सचिन तक. कार से करोड़ों तक दे रहे हैं. सिंधू-साक्षी मालामाल हैं. पीएम से सीएम तक खुश हैं. ट्वीट चल रहे है. अच्छा है. ख़ुशी होनी चाहिए. जश्न मनना चाहिए. पर मुझे आपत्ति है. क्यूँ? इसलिए सिंधु और साक्षी देश का प्रतिनिधित्व करती हैं. लेकिन देश की अंतिम सीमा सियाचीन में बैठे सैनिक के प्रति कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता. ये तर्क देकर मुझे खामोश किया जा सकता है कि सैनिक को अच्छी सैलरी, मुफ़्त इलाज, बच्चों को बेहतर शिक्षा दे रहे हैं. सैनिक शहीद होता है तो कुछ लाख और पंप या एजेंसी देकर उसके परिवार के आंसू पोंछते हैं. तब सरकारें सन्नाटे में आ जाती हैं. सचिन से सलमान तक bmw और कैश प्राइज की बात नहीं करते. आखिर सैनिक भी तो 125 करोड़ देशवासियों का प्रतिनिधित्व करता है. मैडल नहीं लाता तो क्या? सुरक्षा तो रखता है. सीमा पर रहता है. 56 इंच का सीना ताने हाथों में तिरंगा थामे. जॉब के बाद या जॉब के दौरान उसे कोई कंपनी अपने प्रोडक्ट का ब्रांड एम्बेसडर नहीं बनाती. क्यों? क्योंकि वो खूबसूरत नहीं है. उसकी कोई फैन फॉलोइंग नहीं है. वह वोट और नोट कमाने का जरिया नहीं बन सकता. ये रवैया बदलना होगा. सबको. हर सैनिक की अंतरराष्ट्रीय पहचान बने. स्पोर्ट्समैन से लेकर सरकार तक. सचिन से सलमान तक सलाम करें. तभी सहादत को सेल्यूट कहा जा सकता है. जय हिन्द.

Saturday, August 6, 2016

बॉस



बॉस. एक शब्द. दो अक्षर. सुनकर ही रूआब झड़ता है. शक्ल अलग हो सकती है. पर रौब, उपदेश, संदेश, निर्देश और फरमानों में सब एक जैसे. जी हां, आज चर्चा बॉस के बारे में.
कौन होता है बॉस?
कैसे बनता है बॉस?
क्यों बनता है बॉस?
कब बनता है बॉस?
बॉस, हर संस्थान में होता है. हर दल में होता है. घर में. परिवार में. गांव में. शहर में. जिले में. मंडल में. सूबे में. अंतत: प्रदेश और देश में भी. कुछ विश्व बॉस होते हैं. जैसे अमेरिका. अपने आप को मानता है. खैर अंतर्राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है. इसे छोड़ते हैं. यहीं पर. बॉस संगठन चलाता है. पार्टी बढ़ाता है. सत्ता चलाता है. परिवार साधे रखता है. ये है बॉस की खासियत. बॉस के हुकुम के आगे, न पीछे. न कोई बड़ा, न कोई छोटा. कह दिया, सो कह दिया. कर दिया वो हो गया. ना किया तो भला सबका. खुश रखता है, अपने को. अपने से जुड़े दूसरों को. दु:ख अपना भुलाता है, पर दूसरों का याद रखता है. उसके गम को अपनाता है, अपना बिसार कर.
बॉस. यूं ही नहीं बनता. वह नेतृत्व करता है. लीडरशिप का जुनून लेकर चलता है. काम कराने की कला को जीता है. हारता नहीं है. हराता नहीं है. सिर्फ जीतता है और जिताता है. चलता है. हर दम, हर पल. अपनी इच्छाओं को काबू में रखकर. दूसरों की इच्छाओं को सुनकर. अपना काम बाद में करके. पहले अधीनस्थ को तरजीह देता है. क्यूं. अधीनस्थ जड़ है उसकी. उसे खाद-पानी नहीं दिया. तो क्या तना तन पाएगा. नहीं. बिलकुल नहीं. कतई नहीं. चाह उसकी होती हैं. पर पूरी उसकी टीम करती है. लगन उसमें होती है, पर लगन से काम टीम करती है. जुनून होता है. वहां टॉप पर पहुंचने का. शिखर छूने का. अव्वल दर्जे पर रहने का. यही जुनून उसके रूख को मोड़ देता है. भावनाओं को काबू करने में. संवेदनाओं को छू देने में. गंभीरता को अपना लेने में.
बॉस. जो गुलाम होकर भी गुलामी नहीं करता. गुलाम बनाता है. उन्हें बढ़ाता है. हतोत्साहित अकेले में करता है. और प्रोत्साहन भीड़ के बीच में देता है. क्यों. ये रवायत है. बॉस बनने की. परंपरा भी कह सकते हैं. सोचता है अपने बारे में. भविष्य के बारे में. आज के बारे में. कल के बारे में. पर दूसरों (कर्मचारी) पर अपने हुकुम का जादू इस कदर चलाता है कि दूसरा उसके काम के लिए इनकार नहीं कर सकता. करेगा भी क्यों? उसने बॉस के अक्स में अपना हित देखा है. सुनहरे अवसर देखे हैं. तभी तो हम बॉस के पथ पर बढ़ते हैं. तो बढ़ते जाइए. चलते जाइए. बनिए और बनाईए. बॉस..

ये कहकर विराम देता हूं कि
बॉस बनाना मुश्किल नहीं है. यह एक कला है. साधना है. जिसे एक कलाकार और साधक की तरह निभाना पड़ता है.

Lahari

Sunday, July 3, 2016

बड़ी उम्मीद, छोटी ख़ुशी

मित्रों नमस्कार,
एक उम्मीद दुनिया को बदलकर रख देती है. आप उम्मीद पालते हैं. बांधते हैं. पिता से. परमपिता से. उस उम्मीद के सहारे आप कड़ा परिश्रम करते हैं. पसीना छोड़. हाड़ तोड़. खून-पसीना एक करते हैं. दिन रात एक करते हैं. सुबह नहीं देखते. शाम का पता नहीं रखते. दिल में बस जुनून रहता है. कुछ कर गुजरने का. जमीं आसमान एक करने का. मुट्ठी में सूरज बांधने का. पैरो से दुनिया नापने का. हाथों की लकीरों से आगे निकलने का. किसी को पराजित करने का. किसी से जीत जाने का. मुश्किलों को आसान बनाने का. बस, यही धुन लगी रहती है मुझे आगे बढ़ना है. और इसी बड़ी सी उम्मीद के सहारे हम अपनी पूरी जिंदगी गुजार देते हैं. अंत में मिलता क्या है. छोटी सा शब्द. ख़ुशी. इसी ख़ुशी को हम बड़ा माने तो दुनिया जितने का अहसास होता है और छोटा माने तो सारी विरासत लुटाने का गम. इसलिए छोटी खुशी पाने को बड़ी उम्मीद न पालिए. बस खुश रहिये. हर पल. हर दम. हर वक़्त. फिर चाहे इन्क्रीमेंट कम हो ज्यादा. हर फरमाइश पूरी हो अधूरी रह जाये. कोई आये या जाये. मौसम बदले या हालात. जॉब छूटे या प्रमोशन मिले. ख़ुशी का दामन थामे रखिये.

आपका
लहरी.

Tuesday, January 19, 2016

उपाधि वापिसी से समाधान खोजें


अभी कुछ रोज पहले बेहतर सहिष्णुता भेद का शिकार बने बाॅलीवुड के महान कलाकार आमिर खान अभिनीत फिल्म तारे जमीन पर दुबारा देखी। उसमें एक सीन बहुत खूबसूरत लगा। जब इशान अवस्थी के पिता आमिर खान से मिलने क्लास में पहुंचे और आमिर खान ने उन्हें एक ऐसे देश में विचित्र परंपरा के बारे में बताया, जिसमें पौधे को खत्म करने के लिए उसे सिर्फ कोसा जाता है। सीन के अंदर की गहराई पर अब बात करते हैं। आमिर खान अप्रत्यक्ष रूप से समस्या की असल वजह को खत्म करके समाधान ढूंढने की बात करते हैं। बस, यहीं से हमारा ये लेख शुरू होता है।
आज देश में समस्याओं को अमरबेल की तरह बढ़ाना राजनीतिक दलों को तो बखूबी आता है। राजनीति के लोग और उनके समर्थक किसी भी छोटे से मुद्दे को बड़ा बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे अवसर भी तलाशते रहते हैं। फिर चाहे दादरी में तथाकथित अखलाक का बीफ खाना हो, या मालदा का केस। अथवा अभी हाल में सुर्खियां बन रहा हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के आत्मदाह का मामला हो। इस केस पर मंगलवार को तो एक और नई बात सामने आई। वह ये कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जहां केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय का इस्तीफा मांगा, वहीं हैदराबाद विश्वविद्यालय से ही डी. लिट की उपाधि पाने वाले प्रख्यात लेखक अशोक वाजपेयी ने अपनी उपाधि लौटाने की बात कहकर केस से कहीं ज्यादा सुर्खियां बटोर लीं। मामले पर गुस्सा जायज है। राजनीतिक प्रधान देश में राजनीति भी होना लाजिमी है, लेकिन लोकतांत्रिक विरोध का अधिकार मिलने के बावजूद अपनी उपाधि और पुरस्कार लौटाने का कदम कुछ ज्यादा ही हास्यास्पद और निराशावादी नजर आता है। मैं मानता हूं कि यदि आप विरोध दर्ज कराना चाहते हैं, तो उसके और भी कई तरीके हैं। उन तरीकों को अपनाकर अपनी बात रखें। लेकिन एक बात और भी है कि यदि आप बुद्धिजीवी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं तो अपने आप को नियंत्रित रखें। विरोध के लिए अपनी लेखनी, अपने शब्दों को आवाज बनाएं। ये हालात और समस्याएं क्यों उत्पन्न हुईं, उन पर मंथन करें। पुरस्कार या उपाधि को वापिस करने से विरोध दर्ज कराना समझ से परे है। इस निर्णय से तो अन्य लेखक और उपाधिधारियों को विरोध करने का एक नया तरीका मिलेगा। एक नई परंपरा फिर गढ़ी जाएगी, इस पर लोग चल उठेंगे। माना कि बिगड़ी सत्ता और सिस्टम के चलते समस्या का समाधान संभव नहीं है, लेकिन ऐसे हालात भी नहीं हैं, जिनका कोई हल नहीं है। इसके लिए मंथन जरूरी है। एकजुटता जरूरी है। सुझाव और सलाह रखना जरूरी है। एक कदम तो ये कि युवाओं को निराशा की तरफ खिंचे चले जाने की वजहों को जड़ से खत्म करना जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि उन्हें बेरोजगारी, अशिक्षा के दलदल से बाहर लाया जाए। दूसरा बुद्धिजीवियों का जो ज्ञान है, वह युवा पीढ़ी को संसाधनों के साथ शेयर करें। ताकि उन्हें अनुभवहीनता और अज्ञानता का आभास न हो। और वह अपने आप को कमजोर महसूस न करें।

Thursday, January 14, 2016

अधिकार दीजिए, छीनिए नहीं

अधिकार दीजिए, छीनिए नहीं
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन क्या इसकी कोई लकीर खींचनी चाहिए। रचनात्मक, कलात्मक आलोचना और अपमान के बीच कोई सीमा खड़ी की जानी चाहिए। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने को लेकर भारत में समय-समय पर विवाद होता रहा है। कई पुस्तकें प्रतिबंधित हुई हैं। उपन्यासों को जलाया गया तो समाचार पत्रों तक की होली जलाई गई। शार्ली एब्दो पर हमले की बरसी के चंद रोज बाद ही कीकू शारदा की पुलिस हिरासत के बाद ये सवाल और भी मौजू हो चला है। और ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन केवल भारत में ही अपना विस्तार कर रहा बल्कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे विकसित देषों में भी अपने पांव पसार रही है। मुसलमानों के संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत तक ने शार्ली अब्दो सरीखे कांड की निंदा की। मजलिसे-मुशावरत के एक बयान में कहा गया था कि सभी सभ्य समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यह स्वतंत्रता रचनात्मक आलोचना तक सीमित होनी चाहिए और विभिन्न धार्मिक पुस्तकों और पैगम्बरों आदि के अपमान के लिए उपयोग नहीं की जानी चाहिए। भारत में पेरिस जैसे मामले का सामना पहली बार 1920 के दशक में उस समय हुआ जब अविभाजित भारत के शहर लाहौर में एक आर्य समाजी हिंदू प्रकाशक ने मुसलमानों के पैगंबर हजरत मोहम्मद के निजी जीवन के बारे में एक विवादास्पद किताब प्रकाषित की। पैगम्बर मोहम्मद पर लिखी जाने वाली किताब के प्रकाशक राजपाल को पकड़ लिया गया और उनके खिलाफ मुकदमा चला। तब धर्म के अपमान का कोई रूप नहीं था। हालांकि कई साल बाद उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन एक मुस्लिम युवक ने इसी रंजिशन राजपाल की हत्या कर दी। हत्यारे को फांसी हुई। इस घटना के बाद नतीजा ये निकला भारतीय दंड संहिता में धर्म के अपमान की धारा 295-ए के तौर पर शामिल किया गया। भारत में 1988 में ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज पर मुसलमानों के विरोध और धमकियांे के कारण प्रतिबंध लगाया गया। आज से तीन साल पूर्व सलमान रश्दी मुसलमानों के धार्मिक संगठनों की धमकी के कारण देष के जयपुर में आयोजित लिटरेचर फेस्टीवल में षामिल नहीं हो सके थे। इसके अलावा तमाम पुस्तकें सिर्फ इसी वजह से अभी तक प्रतिबंध झेल रही हैं, क्योंकि उनमें धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली सामिग्री परोसी जानी है। बंगलादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन भी देष में मुस्लिमजनों में नफरती नजर से देखी जाती हैं। जबकि नसरीन खुद मुसलमान हैं। इसी तरह मकबूल फिदा हुसैन को हिंदूवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर करना पड़ा। मकबूल फिदा तो कट्टरपंथियों के हमले से इतने आशंकित रहे कि उन्हें अपनी आखिरी सांस विदेष में ही लेनी पड़ी। लेखकों के बाद बात करें कलाकारों की तो राजू श्रीवास्तव, कपिल शर्मा और भारती सिंह सरीखे काॅमेडियन पर कानून बनाने वाले उस वक्त ठहाका लगाने से नहीं चूकते जब वह खुद उनकी मिमिक्री करते हैं। युवा दिलों की धड़कन कहे जाने वाले कवि डाॅ0 कुमार विश्वास ने भी मंच से कई बार राजनेता और धार्मिक व्यक्तित्वों के खिलाफ जहर उगला है। तब तो कोई हल्ला नहीं मचा, लेकिन सिर्फ कीकू शारदा द्वारा एक डेरा प्रमुख की नकल करने की बात ने इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। पुलिस ने भी इतनी तत्परता दिखाई कि कीकू शारदा सरीखे कलाकार को उठाकर सींखचों के पीछे धकेल दिया। बाद में नाटकीय घटनाक्रम के तहत उसे छोड़ दिया। डेरा प्रमुख ने भी कीकू के माफी मांग लेने की बात पर विवाद समाप्त करने का बयान देकर पल्ला झाड़ लिया। दरअसल, ये एपिसोड पूरी तरह स्क्रिप्टेड दिखता है। अपने संगठन को सुर्खियों में लाने और अपने आप को शक्तिशाली दर्शाने के तथ्य को स्पष्ट करने की गोपनीय रणनीति नजर आती है। लिहाजा जरूरत छिपी शक्तियों पर शिकंजा कसने की जरूरत है न कि कलाकारों पर अपना रौब जमाने की। वजह साफ है, भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज का उदाहरण है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। और कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता।  

Monday, January 11, 2016

मनु, मैच, मजा और मंगलवार

मनु, मैच, मजा और मंगलवार
मंगलवार गुजरा। मजेदार गुजरा। मैच का मजा आया। रोहित शर्मा खूब खेले। भारत का डंका बजा। विदेशी सरजमीं पर। आस्ट्रेलिया की धरती पर। जमकर रन बरसे। तालियां....। इससे बेहतर युवा दिवस का सेलीब्रेशन क्या हो सकता है। जब एक नौजवान खिलाड़ी ने अपनी क्षमताओं से आगे जाकर विदेशी खिलाडि़यों की हर तरकीब और समझ को नाकामी में बदल दिया। इसे भारत की काबिलियत कहना गलत नहीं होगा। स्वामी विवेकानंद यानी मनु के जन्मदिवस पर भारत के एक खिलाड़ी का इस तरह खेलना वाकई काबिले तारीफ है। उसने विवेकानंद की उस कहानी को चरितार्थ किया, जिस रोज विवेकानंद बनारस की गलियों में बंदरों के खौफ से एक कदम भी आगे बढ़ाने से डर रहे थे, लेकिन अगले ही पल पीछे से एक बुजुर्ग ने उनको नसीहत दी। डरो मत, उठो, पलटो और आगे बढ़ो। इस मूलमंत्र को लेकर जब स्वामी विवेकानंद आगे चले तो बंदरों ने उन्हें जाने का रास्ता दे दिया। शायद, यही फंडा रोहित शर्मा ने अपनाया। उठे, आगे बढ़े और जमकर खेले। 171 का स्कोर खड़ा कर दिया। विराट भी उनके साथ कदमताल करते रहे। सलाम, रोहित के जज्बे को। दरअसल, रोहित अकेले युवा नहीं है, जो अपनी प्रतिभा से विदेश की धरती पर चमके हैं। बल्कि युवाओं से सशक्त भारत अपनी क्षमताओं को विश्व को निरंतर हैरान कर रहा है। चाहे कोई क्षेत्र हो। अध्यात्म, खेल, मनोरंजन, राजनीति। हर क्षेत्र में वाहवाही। भारतीयों का प्रदर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना दशकों पहले था। 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर स्वामी विवेकानंद ने ओजस्वी भाषण देकर समूचे विश्व को चैंका दिया था, और आज रोहित शर्मा ने।

Amitabh thakur notice

हर अफसर अमिताभ का नोटिस टांगे !
सूबे के एक आईपीएस अधिकारी हैं। ये हैं अमिताभ ठाकुर। फिलवक्त नागरिक सुरक्षा आईजी के पद पर तैनात हैं। इन्होंने अभी हाल में बीते बुधवार को अपने चैंबर के गेट पर एक नोटिस चस्पा कर दिया। नोटिस का मजमून कुछ यूं था कि कोई भी महिला उनके केबिन या कमरे में अकेले न आए। इस नोटिस को अधिकारी ने फेसबुक पर भी पोस्ट कर दिया। मीडिया के लिए ये खबर ब्रेकिंग न्यूज बन गई है। इसके बाद लखनऊ में शाब्दिक और राजनीतिक बवाल मच गया। राज्य महिला आयोग को एक मुद्दा मिल गया। महिला संगठनों में बहस होने लगी। महिलाओं ने अपने आप को कटघरे में खड़ा मान लिया है। अमिताभ ठाकुर के सामाजिक कार्यकर्ता होने पर उंगली उठने लगी हैं। ये तमाम वाद-विवाद उठना लाजिमी है। क्योंकि अमिताभ सामान्य और आमजन तो है नहीं। उन्हें खास दर्जा हासिल है। उनके नोटिस को सूबे में राजनीतिक और खास तौर पर सत्तारूढ़ महिला समाज ने अपने ऊपर की गई टिप्पणी मान लिया है। जबकि ये गलत है। वजह साफ है, अमिताभ ठाकुर को यदि इस तरह का नोटिस लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा है तो उसके लिए जिम्मेदार खुद सत्ताशीन हैं, जिन्होंने अमिताभ सरीखे आईपीएस अधिकारी के खिलाफ माहौल बनाया। नोटिस की खिलाफत करने से पहले उन महिला संगठनों को क्या ये नहीं करना चाहिए था कि वह सूबे में महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बनाने के लिए आवाज उठाएं ? क्या राज्य महिला आयोग को पहले अमिताभ से इस तरह की टिप्पणी के लिए मजबूर होने की वजह नहीं पूछनी चाहिए थी ? लेकिन ऐसा नहीं किया गया। खुद अमिताभ ठाकुर कहते हैं कि ये नोटिस प्रतीकात्मक है और पुरूषों को उन आरोपों से बचाने में मददगार साबित हो सकता है, जिससे पुरूष दुष्कर्म सरीखे संगीन आरोप के कारण कठघरे में खडे़ हो जाते हैं। बेशक, अमिताभ का मकसद महिलाओं को अपमानित करने का नहीं हो, लेकिन उनके इस नोटिस ने ये तो साबित कर दिया है कि समाजवाद का नारा देने वाली सरकार में न पुरूष सुरक्षित हैं और न महिलाएं। अधिकारी वर्ग भी अपने आप को महफूज नहीं मान सकता। वह भी एक पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी। क्योंकि सत्तारूढ़ लोग उसे कभी भी अपने राजनीतिक पाश में फंसाकर उल्टा टांग सकते हैं। मेरी व्यक्तिगत राय में ऐसा नोटिस सिर्फ अमिताभ ठाकुर को नहीं बल्कि सूबे के हर उस अधिकारी को अपने दरवाजे के बाहर टांगना चाहिए, जो भ्रष्ट सिस्टम के खिलाफ हैं। शायद, तभी सरकार अपने आप पर शर्म महसूस करें।